दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Thursday, January 13, 2000

राजस्थान पत्रिका का पत्रिका कनेक्ट प्रोग्राम 09





































































































































































































































1
हर आगाज का अंजाम तुमसे

प्रिये-
मेरी सुबह तुमसे शाम तुमसे
मुझे मिली
हर सौगात तुमसे
मेरा
ह्रास तुम-परिहास तुम
हर सांझ
का
उल्लास तुम
मेरी पूजा तुमसे-ऊर्जा तुमसे
मेरे
हर काम का
तजुर्बा तुमसे
मेरा
दम्भ तुम-धमण्ड तुम
हर आगाज
का
अंजाम तुम
मेरी
आशा तुमसे-निराशा तुमसे
मुझमें जगे
हर अभिलाषा तुमसे
मेरा
अर्पण तुम-दर्पण तुम
हर राज
का
समर्पण तुम
मेरी
हार तुमसे-जीत तुमसे
हर दिन
नई उम्मीद तुमसे
मेरा
राग तुम-द्वेष तुम
मेरे घर-आंगन
का परिवेश तुम
मुझमें
पल्लवित
हर खुशी तुमसे-गमी तुमसे
मेरा
रोम-रोम
पुलकित तुमसे
मेरी
होली तुम-दिवाली तुम
हर श्वास
की रखवाली तुम
मेरा
तन तुम से-मन तुम से
शेष रहा
जीवन तुमसे
मेरी सुबह तुमसे-शाम तुमसे
हर आगाज
का अंजाम तुमसे
-सन्तोष गुप्ता( वेलेन्टाइन डे पर पत्नी के लिए खास)
-2
मेरे आंगन आइयेगा
पल्लवित हुआ एक सपना
सुन्दर सा घर हो
अपना
जोखिम बड़ा था
द्वन्द्व खड़ा था
किया मन अटल
पथ गया निकल
हर्षित है सन्तोष
अर्पण रजनी का
पुलकित है घर
आंगन खुशियों का
आमंत्रण है आज प्रीत का
अपनों से मिलन की रीत का
भूल ना जाइयेगा
मेरे आंगन आइयेगा।
-सन्तोष गुप्ता(6 नम्बर 2003, गुरुवार को गृह प्रवेश पर)
-3
सुनहरा हो सवेरा..
मैं
जन्मा
खुशी उनकी
मैं
सयाना हुआ
दुलार उनका
मुझमें
संस्कार आए
गुरूर उनका
मैंने
छुई ऊंचाई
सहारा थे वो
सोचता हूं
उनकी ही ज़मी
मुझ पर
उनका ही रहा
आसमां
मेरे तो
वही
मंदिर-मस्जिद
और परमात्मा
आज
पास नहीं हैं
वो मेरे
पर
मुझ मैं
बसती है उनकी
आत्मा
खुश हूं मैं
सुखी है परिवार
पर
अफसोस
मुझे
बच्चों ने मेरे
ज्यादा पाया नहीं
दादा का
दुलार
अब
रोम-रोम
पुकारे
मेरा
वो
जहां भी हों
सुनहरा हो
उनका
सवेरा...
-सन्तोष गुप्ता (पिताजी की स्मृति में)


-4
अपने-पराये


यादों के कुछ साए
धुंधले-धुंधले
मुलाकात के वो क्षण
उलझे-उलझे
मेरे मन के
खामोश उपवन में
तितली सी फिरा
करती है
बात कोई
यूं ही
चलते-चलते
मुझे
आधा-अधूरा सा
छोड़ जाएगा कोई
मेरी आंखों में
प्रीत का अंकुर
पलते-पलते
किसी फूल सी
नम पत्तियों पर
शबनम की फुहार
ऊषा की पहली किरण
के साथ लुप्त होती
नीलम सी सतरंगी बूदें
मोती
बनते-बनते
रुकती नहीं कलम
मुझसे... तुमसे मिले
स्नेह की दास्ता
लिखते-लिखते
बुत सा रह जाता है
सन्तोष
विरह के नुक्कड़ पर
तुमसे बिछड़ते खोफ
देखते-देखते
कोहरे सी चादर ढाके
मेरे मन की तह से
पूछे तो कोई
अपने-परायों
के माने।
-सन्तोष गुप्ता (मुंह बोली बहन नीलिमा को समर्पित)
-5
मोही हो तुम


कौन कहता है
निर्मोही हो तुम
नहीं तु निर्मोही नहीं
मोही हो तुम
संध्या सुन्दरी परी सी..दर्शाती
मीन-मृग नयनी सी.. रिझाती
मेरे मनश्चक्षु की
पुतली हो तुम
नहीं तुम निर्मोही नहीं
मोही हो तुम
अल्लहड़-सोख चंचल सी.. खिलखिलाती
मर्मस्पर्शी कोकिल कण्ठा सी.. गुनगुनाती
मेरे तरुण कल की
शिल्पी हो तुम
नहीं तुम निर्मोही नहीं
मोही हो तुम
अमल-कमल पुष्पों सी.. मुस्कराती
पूर्ण चांद-चांदनी सी.. छितराती
मेरे जिजीविषा की
पहेली हो तुम
नहीं तुम निर्मोही नहीं
मोही हो तुम
स्वप्निल हेम-पंखों पर.. उडऩे वाली
रुपहली चंचई धूप सी अगड़ाई भर
मुझे नित जगाने वाली
खामोश-मौन-शील
नीलिमा हो तुम
नहीं तुम निर्मोही नहीं
मोही हो तुम।
-सन्तोष गुप्ता

-6
प्रतीक्षा


तुमने दे-देकर
झूठे आश्वासन
बहला रखा था
मुझे
मैं जीवन की
उन तमाम
अजनबी तहों में
खोजता रहा
तुम्हें
तब तक- जबकि
पतझड़
बरसाती चादर ओड़े
धुंध के साए में
गुजर गया
कई बार
बहारें भी
मेरा मजाक उड़ाती रही
छू-छू कर मुझे
बार-बार
लेकिन मैं
अपनी आस्थाओं की
रोशनी में
तुम्हारे आने की राह
देखता रहा
और
बेबस बैठा सहता रहा
पतझड़ की तेज हवाओं
में टूटे
सूखे पत्तों की
अपने ऊपर
परतों पर परते पड़ते
बचाता रहा
अपनी आस्था के
टिमटिमाते दिए को
बहारों की बेहया नजरों से
सिर्फ
तुम्हारे आने की
खातिर।
-सन्तोष गुप्ता
-7
तुम्हारे आने से जाने तक... तीन कविताएं


एक...........
तुम्हारे आने से
जग जाता है
मेरे कमरे का
दीपक
सो जाता है
तम
और
बदल जाता है
घटना क्रम
मेरे कमरे के
छोटे से
आकाश का
तुम्हारे
आने से..............।

दो.............
तुम्हारे आते ही
हर्षित हो
खिल उठता है
अपने में सिमटा
एक समय से
मेरे कमरे के
कोने में पड़ा
वह पौधा
तुम्हारे आते ही
मुस्कराहट बिखेर
पसर जाती है
मेरे कमरे के
आंगन में
अपने संबंधों के
धरातल पर
कई दिनों से
गुमसुम
अपने ही पत्तों से लिपटी
यह बेल
तुम्हारे आते ही
लालायित हो
ताकती है
तुम्हारी निगाहों के
एक पल
स्पर्श को
मेरे कमरे की
दीवारों पर
अर्से से बेखबर
अनछुई टकी
ये पेंटिग्ंस
तुम्हारे आते ही.................।

तीन...................
तुम्हारे चले जाने
के बाद
ऐसा भी गुजरता है
मुझ पर कई बार
मेरा ही कमरा
लगता है करता
मुझसे
अजनबियों सा
व्यवहार
जबकि
पाता हूं
सब कुछ- सब को
अपनी जगह
निश्चित-निश्चल
ठीक-ठाक
फिर जाने क्यूं
लगता है
मेरा ही कमरा
मुझको
अदला-बदला
तुम्हारे चले जाने के बाद...............।
-सन्तोष गुप्ता
-8
वे कौन थे मेरे


आज फिर
मन ने कचोटा
था मेरे
पथ ने टोका
था मेरे
खुली आंखों में
सूखे आंसुओं के
जमे निशान
थे मेरे
झुके मस्तक पर
पड़ी सलवटों के
स्मृति ग्राफ
थे मेरे
अपाहिज इरादों पर
घिसटती शिक्षा के
टूटते स्वप्न
थे मेरे
सिले होठों पर
अंतहीन पीड़ा के
बोझिल गुबार
थे मेरे
उदास चेहरे पर
खण्डित हंसी लिए
सबका
हितेषी बना
वे
कौन थे
मेरे।
-सन्तोष गुप्ता
-9
शायद


आड़ी-तिरछी
रेखाओं से खिंचा
मानवीयता का
खाका
मेर मस्तिष्क के
कैनवास पर
बिना ठुका हुआ
लटका है
चमकादड़ सा
जहां-तहां
लहू से सिंचा
कौमी एकता का प्रश्न
मेरी बंद डायरी के
पृष्टों पर
बिना हल हुआ
अटका है
सूखे पत्तों सा
पूछे तो
अपने आप से
क्या हो गया है
हमें
कहां गुम हुई है
हमारी नैतिकता
क्यूं
अपनी पहचान के प्रति
उदासीन बना
बैठा है
प्राणी
अंधे कानून सा
शायद
शहीदों के लहू का रंग
लाल नहीं
कुछ और
रहा होगा।
-सन्तोष गुप्ता(गणतंत्र दिवस को समर्पित)
-10
संघर्ष


मेरे
जीवन से जूझता
भीतर ही भीतर
आहें भरता
मेरा चित
अशांत
झूठ, शोषण
छल, अपमान
से संघर्ष करता
विद्रोह, पराजय की
आशंकाओं से उलझा
मेरा भविष्य
मेरे ख्वाबों के
कैनवास पर
अस्पष्ट रेखाओं
से खिंचा
मेरे मनोरम घर
का नक्शा
अब वैसा नहीं
जैसा तब था
ये
स्पष्ट होती रेखाएं
मेरे घर की
चौखट है
ये आकृतियां
मेरे घर के
सम्पन्न और साक्षर
दरिद्रों की हैं
जिनके बीच रहना
मुझे
नश्तर सा
चुभ रहा है
हरदिन-हर पल
संघर्ष करता मैं ।
-सन्तोष गुप्ता
-11
संकल्प

फिर प्रश्न
लेकिन जवाब
वही होगा मेरा
मेरा जवाब
तुम्हारे लिए
फिर
प्रश्न सा क्यंू
क्या
इस पहेली का
हल
कभी निकाल पाएंगे
हम
शायद हां,नहीं भी
लो फिर एक
नया प्रश्न
आओ
क्यूं नहीं हम
मैं ही मैं हूं-मैं ही मैं हूं
को
तुम ही तुम-तुम ही तुम
में बदल दें
चलो आओ
शुरुआत करें
अपने ही आंगन में
अपने ही कर कमलों से
उस चिराग को
जलाकर
जो
आने वाले
तमाम कल को
उज्ज्वलित
करेगा
मोम कर देगा
हर कठोर दिल को
लुहारों के भट्टी की
आग की तरह
तब प्रश्न
अपने जवाब में
पहेली
नहीं बनेगा।
-सन्तोष गुप्ता

-12
तलाश


अभी
कल ही तो
अलार्म
बन्द करके
नाइट लेम्प
जलाकर
ईश्वर स्तूती को
सामने दीवार पर लगे
कलेण्डर की ओर
निहार रहा था
मैंने निगाह रोकी नहीं
थम गई
कल ही तो
साल बीता था
आज
एक माह
फिर गुजर गया
झरोखे की संद
से आती
ऊषा की पहली किरण
ने मुझे
झकझोर दिया
वक्त का
पैगाम दिया
मैं फिर
सोचने लगा
क्या
अतीत में सिर्फ
बहारें थी
मेरे सोचने की
शक्ति बोझिल
हो उठी
मैं बेचैन सा
कमरे की छत
के आकार को
ताकने लगा
मेरा विश्वास
कचोटने लगा
बीता कल
उज्ज्वलित था
पर आज
अंधेरा घोर अंधेरा
फिर भी
मुझे इंतजार
नई सुबह का
और तलाश
जिंदगी के प्रत्येक मोड़ पर
अतीत के आंसू
व्यतीत में
एक क्षण मुस्कराहट का।
-सन्तोष गुप्ता(नए साल पर)

-13
कौन देगा गवाही

मैं
बहुत दिन सोता रहा
कह ना सका अपनी बात
सुनता रहा आदेश
भरता रहा गर्म श्वांस
क्या हो गया है मुझे
पसीना बन
उभरती नहीं गर्मी
होती नहीं हरकत
तनती नहीं मुट्ठियां
क्यंू
क्यूं फूटता नहीं प्रपात
खिलाफत का
बगाबत का
आखिर कब तक
बनती रहेंगी समितियां
बिगड़ती रहेगी योजनाएं
होते रहेंगे दौरे
मैं पूछता हूं... तुमसे
आखिर कब तक..
कौन देगा गवाही
कुर्सी पर टिकी आंखों से
दहशत भरे जीवन में
बूंद-बूंद कोप्यासे
पपड़ाए होठों की
कुलबुलाती आंतें
और
पसलियों की चुभन को
सहते बनी
जिन्दा लाशों की
बुझे चूल्हे और
गीली तीलियों को
ताकती
अस्थी-पंजरों के
ढेरों की
कौन देगा गवाही
सोते हुए शहर के
सोते हुए लोगों की
आखिर कौन
कौन देगा गवाही
मैं पूछता हूं
तुमसे..।
-सन्तोष गुप्ता(राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर मेरी व्यथा)

-15
और कितनी बार


आज भी रात के
पिछले पहर
जब दुनिया
मशीनी खडख़ड़
नित की बड़बड़
से निवृत हो
वास्तविकता से परे
काल्पनिकता में खोई
सोई होती है
तब मुझे-मुझसे
बहुत दूर ले जाता है
मिट्टी के तवे पर चलती
काठ की कलची
का छटपटाना
काली हांड़ी में पकती
ताल की मछली
का बुदबुदाना
और मैं
बॉलकानी की
मुडेर को पकड़े
स्वयं को खड़े पाता हूं
निर्निमेष देखते
आजाद हिन्द के
दिग्भ्रांत क्षण को
सामने
गांधी आश्रम की
ढहती दीवार के आगोश में
पेबन्द लगी धोती
के ओट में
आंसू बनी बैठी
वो हिन्द की बेटी
भरत की मां
सुभाष की बहन
बिलबिलाते बच्चे को
सूखे आंचल से
चिपकाए
अपने फटे दामन को
लिए वो फैलाए
व्यस्त है
मौन संवाद में
विचारों के जखीरे में
कुलबुलाता है
तो एक प्रश्न
सिर्फ एक ही प्रश्न
शरारती बेटों को
राजी करने में
भोग चुकी हूं
अंग-भंग एक बार
अपनी शरारतों के लिए
अपनी ही मां के
अंग-भंग करने वाले
शरारती बच्चों
और कितनी बार
करोगे अंग-भंग
और कितनी बार
अपनी ही मां का
अंग-भंग
और कितनी बार।
-सन्तोष गुप्ता(खालिस्तान,तेलगांना, महाराष्ट्र, मरु राजस्थान की उठती मांग पर उपजा दर्द)
-16
सफर

जीवन पथ पर
शुरू होता है
सफर
एक और नए कदम से
जाने क्यूं
ये चौराहे सी
जिंदगी
हर मोड़ से गुजर कर
फिर चौराहे पर ला
खड़ा करती है
चुनने को
कुछ भी तो नहीं यहां
जिसे चुनते हैं
वहां सब
चुगा सा
नजर आता है
एक लम्बी कतार लगी है
इस छोर से
उस नुक्कड़ तक
आरक्षित जन्तुओं की
बेचारा मूक
निहत्था जीव
पालतू कबूतर सा
कटे पंख लिए
सिटपिटाया हुआ
ताकता है
मुडेर पर पड़े
आकाश कुसुम से
दाने को
मिले तो
कोशिश उसकी
अधिकार नहीं
ना ही बटोर पाता
साहस
उडऩे का
वहीं जड़वत होने का
आखिर
टूटता हुआ विश्वास
इसी चौराहे पर
विज्ञापित कागज की
शब्दावली में
सिमटता उसके
दर्द का इतिहास
और यहीं
खत्म होता
सफर उसका।
- सन्तोष गुप्ता
(आरक्षण की बढ़ती मांग पर सामान्य वर्ग की स्थिति पर चली कलम)