दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Thursday, January 8, 2009

खर्च का दुगना पाया सुख-3

पत्रिका समूह की सालाना समीक्षा बैठक में पहुंचने का आमंत्रण मिलने के दिन से ही यह सवाल दिमाग में कौंधने लगा कि भीलवाड़ा से कब निकला जाएगा? पुराना अनुभव है रातभर कामकर या सफर कर कॉन्फ्रें स में पहुंचते हैं तो फिर पूरे दिन नींद और आलस में बीत जाता है। तरोताजा नहीं रह पाते। इसलिए शाखा प्रबन्धक जगदीश गुप्ताजी से मैंने आग्रह किया कि हमें एक रात पहले ही पहुंचना चाहिए। हम रात्रि विश्राम जयपुर में ही करें तो बेहतर होगा, ताकि सुबह आठ बजे तक तैयार होकर पिंक पर्ल रिसोर्ट पहुंच सकेंगे।

गुप्ताजी ने भी आग्रह स्वीकार किया। हम छह जनवरी की रात्रि आठ बजे भीलवाड़ा से जयपुर के लिए प्रस्थान कर गए। भीलवाड़ा छोडऩे से पहले गुप्ताजी ने मालवीय नगर कॉलोनी स्थित पत्रिका के गेस्ट हाउस में कमरा बुक करा लिया था। हम सफर में थे। रास्ते में खाते-पीते, बातें करते समय कटने का पता ही न चला। करीब साढ़े बारह बजे हमारी कार पिंक पर्ल रिसोर्ट के बाहर से गुजरी। मेरे दिमाग की घंटी बजी। मन ने कुछ कहना शुरू किया। मन कह रहा था कि जहां पहुंचना है वह स्थल तो आ गया, आगे कहां जा रहे हो? मैंने मन की आवाज सुनी और अपना विचार मैनेजर गुप्ता जी के सम्मुख रख दिया।पत्रकारिता में एक सूत्र यह भी है कि विचारों की भ्रूण हत्या न की जाए। जब भी विचार उपजे उसे कागज पर लिखें अथवा अपने सहयोगियों में साझा कर दें। कहीं कोई अच्छी खबर पक जाए। इस सूत्र के कई बार अच्छे परिणाम मिले हैं ऐसा मेरा अनुभव रहा है। उस रात भी ऐसा ही हुआ। जैसे ही मैनेजर साहब को मैंने कहा कि हमें जयपुर जाकर पत्रिका के गेस्ट हाउस में ठहरना ही है। क्यों नहीं हम एक बार रिसोर्ट के रिशेप्शन पर पता कर लें कि क्या हम आज रात से ही वहां ठहर सकते हैं? मैनेजर साहब एक बार तो तैयार नहीं हुए। हमारी गाड़ी करीब एक किलोमीटर आगे निकल चुकी थी। फिर उन्होंने कहा कि चलो ठीक है, आप ही अन्दर जाकर बात करना। मैंने तुरन्त ड्राईवर को गाड़ी मोडऩे के लिए कहा। अगले पांच मिनट में मैं पिंक पर्ल रिसोर्ट के रिशेप्शन पर था। मैंने अपना परिचय दिया और उनसे पूछा कि क्या मेरे नाम से कोई बुकिंग हैं। रिशेप्शन पर बैठे व्यक्ति ने पूरे शिष्टïाचार के साथ जैसे होटल में आगंतुक का स्वागत करते हैं बताया कि मेरे नाम से कमरा बुक है। मुझे यह भी कहा गया कि घड़ी के अनुसार रात्रि के एक बज चुके हैं। यानि सात जनवरी लग चुकी है। मैं चाहूं तो उस वक्त से ही अपने लिए बुक कराए कमरे का उपभोग कर सकता हूं। रिशेप्शन पर बैठे व्यक्ति के मुख से अपने लिए पूरी तरह अनुकूल जवाब सुनकर मेरा मन नाचने लगा। सफर की सारी थकान चुटकियों में गायब हो गई। मैंने बाहर आकर मैनेजर साहब को बताया कि हम अब जयपुर नहीं जाएंगे। रिसोर्ट में ही रात्रि विश्राम करेंगे। हमारे लिए बुक कराए कमरों का समय शुरू हो चुका है। यानी एक दिन के खर्च पर हम रिसोर्ट में दो रात और दो दिन का लुत्फ उठा सकते हैं। इस सूझबूझ के लिए मैनेजर साहब भी खुश हुए। मुझे सुकून मिला कि अब सुबह जल्दी उठकर तैयार होने की जल्दबाजी नहीं रहेगी। खर्च से दुगुना सुख पाने मौज-मस्ती करने का आनन्द दूसरे नहीं उठा सकेंगे।(एक से तीन इति)-सन्तोष गुप्ता सम्पादकीय प्रभारी,भीलवाड़ा

शर्र्मींदगी अनजानी! -2

मुझे शर्र्मींदगी है। अनजानी शर्र्मींदगी। यह मेरी अंतश्चेतना की है। मैं जानता हूं जिस घटना पर मैं शर्र्मींदा हूं उसकी उन्हें खबर भी न होगी। वे बहुत सहज हैं। अत्यंत सहृदय भी। मेरे लिए वे परम आदरणीय हैं और मेरे उज्ज्वल भविष्य के जनक भी। उनकी सरलता का कोई सानी नहीं। करीब आठ साल बाद पिंक पर्ल रिसोर्ट में डिनर पर उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात क्या हुई, साक्षात हुआ। मेरा अभिवादन स्वीकार करते ही उन्होंने मुझे नाम से संबोधित करते हुए कुशलक्षेम पूछी। मैं चकित रह गया। इतने वर्र्षों में मेरा रंग-रूप, काया-चेहरा सब बदल चुका है। बदन पर मोटापा झलकने लगा है। पेट बाहर आ गया है। चेहरे ने गंभीरता ओढ़ ली है। मेरी अल्हड़ता और मुस्कान मुझे ही सौतेली लगनी लगी है। ऐसे में उनका मुझे न सिर्फ पहचान पाना, बल्कि उतनी ही आत्मीयता और सहजता से आगे होकर संवाद कायम करना मेरे मन में उनके प्रति आदरभाव को और बढ़ा गया। यह मेरे लिए ऐसा था जैसे स्वजनों की भीड़ में किसी खास अपने को खोजते नन्हें बच्चे को अचानक कोई स्नेहभाव से बाजुओं से पकड़कर गोद में उठा ले। मैं तो उनके अपनेपन का वैसे ही कायल था। पत्रिका अजमेर संस्करण का शुभारंभ करने की तैयारियों के दिनों में उपयुक्त भवन अथवा भूखण्ड की तलाश के वक्त उनसे पहली मुलाकात हुई थी। इस काम के लिए बनी विशेष टास्क टीम में मैं भी था। मैंने ही तीन-चार भूखण्ड और भवन के प्रस्ताव जुटाकर मुख्यालय भिजवाए थे। जिन्हें देखने स्वयं महाप्रबंधक एचपी तिवारीजी अजमेर पहुंचे थे। अत्यंत साधारण स्वभाव के धनी तिवारीजी ने पहली ही मुलाकात में मेरे अंतर्मन में जगह बना ली थी। अजमेर से विदा होते हुए मैंने बस स्टैण्ड के सामने जिस पान की दुकान से उन्हें पान खिलाया वहीं पर ही अजमेर संस्करण के लिए भवन की तलाश पूरी हुई। पान की दुकान पर खड़े मित्र ने ही मुझे श्री तिवारीजी के लौटने पर बताया कि रीको औद्योगिक क्षेत्र में रीको का ही गोदाम बिकाऊ है। जिस पर शैड और भवन दोनों ही बने हुए हैं। हमें तो सिर्फ मशीन लगानी है और अखबार निकलने लगेगा। मैंने मित्र की बात सुनकर अपना माथा पीटा। अफसोस किया कि यह बात वह तनिक भी पहले बता देता तो में अभी ही तिवारीजी को साथ ले जाकर मौका भी दिखा लाता। खैर जो बात मेरे वश में नहीं थी उसके लिए मुझे अफसोस नहीं करना चाहिए यह सोचकर मैंने अगले दिन इसकी पूरी पड़ताल कर ही तिवारीजी को सूचित करने का मानस बनाया। मुझे प्रसन्नता है कि सिर्फ उपयुक्त स्थान की तलाश पूरी होने की वजह से ही अजमेर संस्करण मात्र तीन माह में शुरू हो गया। संस्करण के स्थापना दिवस समारोह में मुझे मेरे इस सहयोग और श्रम के लिए संस्थान की ओर से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के हाथों मुझे शॉल ओढ़ाया गया। संस्थान के लिए जी-जान से किए गए छोटे से काम का इतना बड़ा मान पाकर मैं स्वयं को संस्थान का ऋणी पाने लगा। तब से आज दिन तक अपने स्वभाव और सरोकार के बूते संस्थान में अपना स्थान बनाया। आज मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता हूं। उच्च आदर्श और व्यक्तित्व के धनी तिवारीजी से जुड़ी एक घटना ने ही मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया। जिस पर मैं मन ही मन शर्र्मींदगी महसूस करता हूं। घटना आठ जनवरी 09 की है। पिंक पर्ल रिसोर्ट के कमरा नम्बर 401 में मैं अपने दो साथियों अमित शर्मा मार्केटिंग प्रभारी और वितरण प्रभारी अमित के साथ ठहरा हुआ था। कमरे में इंस्टेंट चाय का प्रावधान था। लेकिन पाउडर दूध और चाय के पाउच पर्याप्त नहीं थे। उपलब्ध पाउच से सिर्फ एक चाय ही बन सकती थी। और हम तीन जने थे। सुबह आठ बजे कॉन्फ्रेस हॉल में एकत्र होने की हमें जल्दी थी। हमें बताया गया था कि कॉन्फ्रेस में देरी से पहुंचे तो किसी भी रूप में दण्डित किए जा सकते हो! थ्री स्टार होटल के कमरे में चाय और अखबार के बिना दैनिक क्रिया से निवृत्त होना मुश्किल लग रहा था। रूम अटेंडेंट ने एक प्याला चाय की कीमत साठ रुपए और सिगरेट के एक पैकट की कीमत सौ रुपए बताई थी। हमने कमरे में चाय मंगाने के बजाय बनाना ही उचित समझा। मैंने चाय और दूध के वांछित पाउच उपलब्ध कराने का ऑर्डर कर अपने लिए चाय बना ली। चाय की प्याली हाथ में लिए मैं पलंग पर बैठा चुस्की भर रहा था। डेली न्यूज का ताजा अंक पढऩे में मशगूल था। दाएं हाथ की अंगुली में सिगरेट सुलग रही थी। यह मेरे पास उपलब्ध कोटे में से बची इकलौती सिगरेट थी। होटल के कमरे में बैठे बेफिक्र इस इकलौती सिगरेट का सुट्टा लगाने का आनन्द अलग ही था। मैं यदि ये कहूं आनन्द की इस अनुभूति को बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि लाखों की लागत से बनाए अपने घर में मुझे ऐसा मौका अभी तक नहीं मिला। तभी अचानक कमरे का दरवाजा नोक हुआ। मैंने बिना विचारे ही यह जानकर कि रूम अटेंडेंट होगा अन्दर आने को कह दिया। दरवाजा खुला तो मेरे होश फाख्ता हो गए। मैं स्तब्ध रह गया। दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया। सोच और समझ सुन्न हो गई। पलंग पर बैठे मुझे लगा कि किसी ने मेरे पर घड़ा भर कर बर्फीला पानी उड़ेल दिया। मेरी खुली आंखों के सामने जो आकृति दिखाई पड़ रही थी वह तिवारीजी की थी। उन्होंने मुझसे पूछा क्या बाथरूम खाली है? मैंने कहा नहीं। और दरवाजा बंद हो गया। एक पल को ऐसा लगा कि आनन्द के इन क्षणों में भगवान देखने आए और अंर्तध्यान हो गए। दूसरे ही पल अहसास हुआ कि यह कैसा आनन्द? इस आनन्द से तो उनकी नजरों में मेरी छवि प्रभावित हो गई होगी? ऐसे हालात में पाया गया हूं जिसकी उन्हें उम्मीद न होगी? फिर खयाल आया कि बाथरूम खाली पूछने के बहाने वे कहीं हमें जांचने ही तो नहीं आए थे? इस घटना का खयाल आने पर अब तक मैं अपने आप को सहज नहीं कर पाता हूं। सोचता हूं कॉन्फ्रेंस में समय पर पहुंचने की उनकी भी मजबूरी होगी। अन्यथा वे खाली बाथरूम तलाशने हमारे कमरे में क्यों आते? फिर भी मैं अंतश्चेतना से शर्मींदगी महसूस करने लगा हूं। बंद कमरे में भी सतर्कता बरतने लगा हूं। सिगरेट पीने की खुद की कमजोरी से डरने लगा हूं। कमजोरी पर जीत का प्रयत्न और प्रार्थना करने लगा हूं।

Wednesday, January 7, 2009

लम्हे जो याद बन गए...

खुशी के अलफाज नहीं-1

भीलवाड़ा संस्करण सम्पादकीय प्रभारी पद दायित्व संभाले मुझे अभी चार माह ही पूरे हुए। पत्रिका समूह की सालाना समीक्षा बैठक में हिस्सा लेने का मौका मिला। बैठक सात और आठ जनवरी को जयपुर के निकट पिंक पर्ल रिसोर्ट में रखी गई थी। पत्रिका समूह के निदेशक मण्डल सदस्यों, शाखा प्रबन्धकों व सम्पादकीय प्रभारियों का एक स्थान पर एक छत के नीचे दो दिन एक साथ रहना अपने आप में उत्साहजनक था। मेरे लिए यह पहला अवसर था। इसे लेकर मुझ में थोड़ी घबराहट भी थी। मानवीय स्वभाववश ऐसा होना लाजिमी भी था। अजमेर से पदोन्नति पर भीलवाड़ा पदस्थापन के नए दायित्व बोध के साथ यह नायाब अनुभव होने वाला था। सोचता था कि निदेशक मण्डल के सदस्यों से मुलाकात कैसी होगी? नए पद पर मेरे कामकाज का मूल्यांकन कैसा रहा होगा? हालांकि नई ऊर्जा और ऊष्मा से मैं लबरेज था। फिर भी संदेह पनप रहा था। भीलवाड़ा में नया पद, नई जगह, नए साथी, सब कुछ मेरे लिए नया था। विधानसभा चुनाव सिर पर थे। अनजाने लोगों में वर्चस्व बनाना, साथियों पर नेतृत्व कायम कर पाना मेरे लिए चुनौती थी। मेरे स्वभाव, मेरी कार्य दक्षता और मेरे आत्मविश्वास ने यह काम कब कर दिया मुझे खुद तब अनुभूत हुआ, जब कार्यकारी प्रबन्ध निदेशक आदरणीय नीहार जी सा. ने मुझसे कहा (भीलवाड़ा ठीक चल रहा है, मुझे जानकारी है। अच्छा फीडबैक मिला है।) नीहारजी के इस कथन में न जाने कैसी जादूई झप्पी थी कि मेरा अन्तर्मन पुलकित हो गया। मैंने तो अभी उनसे विनम्र नमस्कार ही किया था। मुख से कुछ बोला ही नहीं। मेरे होठों पर आए शब्द प्रस्फुटित होते इससे पहले ही बुलबुले बन गायब हो गए। मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण होने सा अहसास हुआ। दिल बल्लियों उछल रहा था। मन कुलांचे भर रहा था। मेरे पास भीतर-भीतर होती खुशी को दर्शाने के लिए अलफाज नहीं थे। उस क्षण मुस्करा कर मैं सिर्फ थैंक्यू ही कह पाया

शर्र्मींदगी अनजानी! -2
मुझे शर्र्मींदगी है। अनजानी शर्र्मींदगी। यह मेरी अंतश्चेतना की है। मैं जानता हूं जिस घटना पर मैं शर्र्मींदा हूं उसकी उन्हें खबर भी न होगी। वे बहुत सहज हैं। अत्यंत सहृदय भी। मेरे लिए वे परम आदरणीय हैं और मेरे उज्ज्वल भविष्य के जनक भी। उनकी सरलता का कोई सानी नहीं। करीब आठ साल बाद पिंक पर्ल रिसोर्ट में डिनर पर उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात क्या हुई, साक्षात हुआ। मेरा अभिवादन स्वीकार करते ही उन्होंने मुझे नाम से संबोधित करते हुए कुशलक्षेम पूछी। मैं चकित रह गया। इतने वर्र्षों में मेरा रंग-रूप, काया-चेहरा सब बदल चुका है। बदन पर मोटापा झलकने लगा है। पेट बाहर आ गया है। चेहरे ने गंभीरता ओढ़ ली है। मेरी अल्हड़ता और मुस्कान मुझे ही सौतेली लगनी लगी है। ऐसे में उनका मुझे न सिर्फ पहचान पाना, बल्कि उतनी ही आत्मीयता और सहजता से आगे होकर संवाद कायम करना मेरे मन में उनके प्रति आदरभाव को और बढ़ा गया। यह मेरे लिए ऐसा था जैसे स्वजनों की भीड़ में किसी खास अपने को खोजते नन्हें बच्चे को अचानक कोई स्नेहभाव से बाजुओं से पकड़कर गोद में उठा ले। मैं तो उनके अपनेपन का वैसे ही कायल था। पत्रिका अजमेर संस्करण का शुभारंभ करने की तैयारियों के दिनों में उपयुक्त भवन अथवा भूखण्ड की तलाश के वक्त उनसे पहली मुलाकात हुई थी। इस काम के लिए बनी विशेष टास्क टीम में मैं भी था। मैंने ही तीन-चार भूखण्ड और भवन के प्रस्ताव जुटाकर मुख्यालय भिजवाए थे। जिन्हें देखने स्वयं महाप्रबंधक एचपी तिवारीजी अजमेर पहुंचे थे। अत्यंत साधारण स्वभाव के धनी तिवारीजी ने पहली ही मुलाकात में मेरे अंतर्मन में जगह बना ली थी। अजमेर से विदा होते हुए मैंने बस स्टैण्ड के सामने जिस पान की दुकान से उन्हें पान खिलाया वहीं पर ही अजमेर संस्करण के लिए भवन की तलाश पूरी हुई। पान की दुकान पर खड़े मित्र ने ही मुझे श्री तिवारीजी के लौटने पर बताया कि रीको औद्योगिक क्षेत्र में रीको का ही गोदाम बिकाऊ है। जिस पर शैड और भवन दोनों ही बने हुए हैं। हमें तो सिर्फ मशीन लगानी है और अखबार निकलने लगेगा। मैंने मित्र की बात सुनकर अपना माथा पीटा। अफसोस किया कि यह बात वह तनिक भी पहले बता देता तो में अभी ही तिवारीजी को साथ ले जाकर मौका भी दिखा लाता। खैर जो बात मेरे वश में नहीं थी उसके लिए मुझे अफसोस नहीं करना चाहिए यह सोचकर मैंने अगले दिन इसकी पूरी पड़ताल कर ही तिवारीजी को सूचित करने का मानस बनाया। मुझे प्रसन्नता है कि सिर्फ उपयुक्त स्थान की तलाश पूरी होने की वजह से ही अजमेर संस्करण मात्र तीन माह में शुरू हो गया। संस्करण के स्थापना दिवस समारोह में मुझे मेरे इस सहयोग और श्रम के लिए संस्थान की ओर से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के हाथों मुझे शॉल ओढ़ाया गया। संस्थान के लिए जी-जान से किए गए छोटे से काम का इतना बड़ा मान पाकर मैं स्वयं को संस्थान का ऋणी पाने लगा। तब से आज दिन तक अपने स्वभाव और सरोकार के बूते संस्थान में अपना स्थान बनाया। आज मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता हूं। उच्च आदर्श और व्यक्तित्व के धनी तिवारीजी से जुड़ी एक घटना ने ही मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया। जिस पर मैं मन ही मन शर्र्मींदगी महसूस करता हूं। घटना आठ जनवरी 09 की है। पिंक पर्ल रिसोर्ट के कमरा नम्बर 401 में मैं अपने दो साथियों अमित शर्मा मार्केटिंग प्रभारी और वितरण प्रभारी अमित के साथ ठहरा हुआ था। कमरे में इंस्टेंट चाय का प्रावधान था। लेकिन पाउडर दूध और चाय के पाउच पर्याप्त नहीं थे। उपलब्ध पाउच से सिर्फ एक चाय ही बन सकती थी। और हम तीन जने थे। सुबह आठ बजे कॉन्फ्रेस हॉल में एकत्र होने की हमें जल्दी थी। हमें बताया गया था कि कॉन्फ्रेस में देरी से पहुंचे तो किसी भी रूप में दण्डित किए जा सकते हो! थ्री स्टार होटल के कमरे में चाय और अखबार के बिना दैनिक क्रिया से निवृत्त होना मुश्किल लग रहा था। रूम अटेंडेंट ने एक प्याला चाय की कीमत साठ रुपए और सिगरेट के एक पैकट की कीमत सौ रुपए बताई थी। हमने कमरे में चाय मंगाने के बजाय बनाना ही उचित समझा। मैंने चाय और दूध के वांछित पाउच उपलब्ध कराने का ऑर्डर कर अपने लिए चाय बना ली। चाय की प्याली हाथ में लिए मैं पलंग पर बैठा चुस्की भर रहा था। डेली न्यूज का ताजा अंक पढऩे में मशगूल था। दाएं हाथ की अंगुली में सिगरेट सुलग रही थी। यह मेरे पास उपलब्ध कोटे में से बची इकलौती सिगरेट थी। होटल के कमरे में बैठे बेफिक्र इस इकलौती सिगरेट का सुट्टा लगाने का आनन्द अलग ही था। मैं यदि ये कहूं आनन्द की इस अनुभूति को बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि लाखों की लागत से बनाए अपने घर में मुझे ऐसा मौका अभी तक नहीं मिला। तभी अचानक कमरे का दरवाजा नोक हुआ। मैंने बिना विचारे ही यह जानकर कि रूम अटेंडेंट होगा अन्दर आने को कह दिया। दरवाजा खुला तो मेरे होश फाख्ता हो गए। मैं स्तब्ध रह गया। दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया। सोच और समझ सुन्न हो गई। पलंग पर बैठे मुझे लगा कि किसी ने मेरे पर घड़ा भर कर बर्फीला पानी उड़ेल दिया। मेरी खुली आंखों के सामने जो आकृति दिखाई पड़ रही थी वह तिवारीजी की थी। उन्होंने मुझसे पूछा क्या बाथरूम खाली है? मैंने कहा नहीं। और दरवाजा बंद हो गया। एक पल को ऐसा लगा कि आनन्द के इन क्षणों में भगवान देखने आए और अंर्तध्यान हो गए। दूसरे ही पल अहसास हुआ कि यह कैसा आनन्द? इस आनन्द से तो उनकी नजरों में मेरी छवि प्रभावित हो गई होगी? ऐसे हालात में पाया गया हूं जिसकी उन्हें उम्मीद न होगी? फिर खयाल आया कि बाथरूम खाली पूछने के बहाने वे कहीं हमें जांचने ही तो नहीं आए थे? इस घटना का खयाल आने पर अब तक मैं अपने आप को सहज नहीं कर पाता हूं। सोचता हूं कॉन्फ्रेंस में समय पर पहुंचने की उनकी भी मजबूरी होगी। अन्यथा वे खाली बाथरूम तलाशने हमारे कमरे में क्यों आते? फिर भी मैं अंतश्चेतना से शर्मींदगी महसूस करने लगा हूं। बंद कमरे में भी सतर्कता बरतने लगा हूं। सिगरेट पीने की खुद की कमजोरी से डरने लगा हूं। कमजोरी पर जीत का प्रयत्न और प्रार्थना करने लगा हूं।

खर्च का दुगना पाया सुख-3
पत्रिका समूह की सालाना समीक्षा बैठक में पहुंचने का आमंत्रण मिलने के दिन से ही यह सवाल दिमाग में कौंधने लगा कि भीलवाड़ा से कब निकला जाएगा? पुराना अनुभव है रातभर कामकर या सफर कर कॉन्फ्रें स में पहुंचते हैं तो फिर पूरे दिन नींद और आलस में बीत जाता है। तरोताजा नहीं रह पाते। इसलिए शाखा प्रबन्धक जगदीश गुप्ताजी से मैंने आग्रह किया कि हमें एक रात पहले ही पहुंचना चाहिए। हम रात्रि विश्राम जयपुर में ही करें तो बेहतर होगा, ताकि सुबह आठ बजे तक तैयार होकर पिंक पर्ल रिसोर्ट पहुंच सकेंगे।
गुप्ताजी ने भी आग्रह स्वीकार किया। हम छह जनवरी की रात्रि आठ बजे भीलवाड़ा से जयपुर के लिए प्रस्थान कर गए। भीलवाड़ा छोडऩे से पहले गुप्ताजी ने मालवीय नगर कॉलोनी स्थित पत्रिका के गेस्ट हाउस में कमरा बुक करा लिया था। हम सफर में थे। रास्ते में खाते-पीते, बातें करते समय कटने का पता ही न चला। करीब साढ़े बारह बजे हमारी कार पिंक पर्ल रिसोर्ट के बाहर से गुजरी। मेरे दिमाग की घंटी बजी। मन ने कुछ कहना शुरू किया। मन कह रहा था कि जहां पहुंचना है वह स्थल तो आ गया, आगे कहां जा रहे हो? मैंने मन की आवाज सुनी और अपना विचार मैनेजर गुप्ता जी के सम्मुख रख दिया।पत्रकारिता में एक सूत्र यह भी है कि विचारों की भ्रूण हत्या न की जाए। जब भी विचार उपजे उसे कागज पर लिखें अथवा अपने सहयोगियों में साझा कर दें। कहीं कोई अच्छी खबर पक जाए। इस सूत्र के कई बार अच्छे परिणाम मिले हैं ऐसा मेरा अनुभव रहा है। उस रात भी ऐसा ही हुआ। जैसे ही मैनेजर साहब को मैंने कहा कि हमें जयपुर जाकर पत्रिका के गेस्ट हाउस में ठहरना ही है। क्यों नहीं हम एक बार रिसोर्ट के रिशेप्शन पर पता कर लें कि क्या हम आज रात से ही वहां ठहर सकते हैं? मैनेजर साहब एक बार तो तैयार नहीं हुए। हमारी गाड़ी करीब एक किलोमीटर आगे निकल चुकी थी। फिर उन्होंने कहा कि चलो ठीक है, आप ही अन्दर जाकर बात करना। मैंने तुरन्त ड्राईवर को गाड़ी मोडऩे के लिए कहा। अगले पांच मिनट में मैं पिंक पर्ल रिसोर्ट के रिशेप्शन पर था। मैंने अपना परिचय दिया और उनसे पूछा कि क्या मेरे नाम से कोई बुकिंग हैं। रिशेप्शन पर बैठे व्यक्ति ने पूरे शिष्टïाचार के साथ जैसे होटल में आगंतुक का स्वागत करते हैं बताया कि मेरे नाम से कमरा बुक है। मुझे यह भी कहा गया कि घड़ी के अनुसार रात्रि के एक बज चुके हैं। यानि सात जनवरी लग चुकी है। मैं चाहूं तो उस वक्त से ही अपने लिए बुक कराए कमरे का उपभोग कर सकता हूं। रिशेप्शन पर बैठे व्यक्ति के मुख से अपने लिए पूरी तरह अनुकूल जवाब सुनकर मेरा मन नाचने लगा। सफर की सारी थकान चुटकियों में गायब हो गई। मैंने बाहर आकर मैनेजर साहब को बताया कि हम अब जयपुर नहीं जाएंगे। रिसोर्ट में ही रात्रि विश्राम करेंगे। हमारे लिए बुक कराए कमरों का समय शुरू हो चुका है। यानी एक दिन के खर्च पर हम रिसोर्ट में दो रात और दो दिन का लुत्फ उठा सकते हैं। इस सूझबूझ के लिए मैनेजर साहब भी खुश हुए। मुझे सुकून मिला कि अब सुबह जल्दी उठकर तैयार होने की जल्दबाजी नहीं रहेगी। खर्च से दुगुना सुख पाने मौज-मस्ती करने का आनन्द दूसरे नहीं उठा सकेंगे।(एक से तीन इति)-सन्तोष गुप्ता सम्पादकीय प्रभारी,भीलवाड़ा