दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Thursday, December 31, 2009

रिश्तों में ले आएं गरमाहट

इक्कीस वीं सदी के पहले दशक के अंतिम बरस का पहला दिन हमारी देहलीज पर आ खड़ा हुआ है। बीते पल और नए क्षण के बीच भला कभी कोई फासला रहा है? हर ढलती सांझ पर नई सुबह की इबारत लिखी होती है। हमें तो उसे पढऩा और ईश्वर के भेजे संदेश को समझना भर होता है। निरंतर बदलते समय की नजाकत को समझते हुए जो आगे बढ़ गया वही मंजिल पा गया। जो पिछड़ गया वह वहीं ठहरा रह गया। जीवन एक सफर ही तो है। सफर यानि गतिवान बने रहना। चलते रहना। पल-पल आगे बढ़ते रहना।

कुछ नया करते रहना।याददाश्त पर ज्यादा जोर ना भी दे तो भी याद आ जाता है जब हमने आज ही कि तरह वर्ष 1999 को अलविदा कहा था और वर्ष 2000 का गर्मजोशी से स्वागत किया था। नई सोच, नए इरादे, नया ख्याल और नवीन जज्बा हमारे दिलो-दिमाग में उमडऩे-घुमडऩे लगा था। सदी के पहले दशक के नए साल की शुरूआत नए लक्ष्य और संकल्प के साथ करने की चाहत जवां हो उठी थी। आज फिर वैसा ही अवसर है। वैसी ही महफिल सजी है। अपने आस-पास कमोवेश वैसा ही नहीं तो थोड़ा-बहुत बदला हुआ मंजर है। वैसा ही समां। थोड़ा गौर से देखें तुम्हें चाहने वाले यहां कितने हैं? कौन शेष है जो तुम्हारा शुभचिंतक है? किसे तुम दावे के साथ अपना कह सकते हो? कौन है जो तुम्हारा हाथ थाम कर दस कदम तुम्हारे साथ चलने को राजी है? कौन है जो तुम्हारी गलती पर मुस्कराता नहीं संबंल देता है? तुम्हारी उत्कृष्ट सेवाओं का खुद श्रेय नहीं लेता तुम्हे शाबासी देता है।

इक्कीसवीं सदी का यह दशक विकास के पथ पर निश्चित ही बहुत तेजी से आगे बढ़ गया। अदने से आला तक ने तरक्की पा ली। कई निरक्षर से साक्षर हो गए। जो कल तक नासमझ थे आज समझदार हो गए। अज्ञानियों ने ज्ञानवान होने का दर्जा पा लिया। जो दलवान थे वे धनवान हो गए। धनवान भी देखते - देखते बलवान हो गए। अब तक जो पैदल फिरा करता था वह कार वाला हो गया। कार वाला बड़े रसुकात वाला हो गया। पीछे छूटा तो बस छोटों को प्यार और बड़ों का सम्मान, दोस्तों की मोहब्बत और सहेलियों की प्रीत, रिश्तेदारों से अपनापन और पड़ोसियों से नजदीकियां, पारिवारिक सरोकार और सामाजिक सद्भाव, मातहतों से समभाव और प्रतिद्वंद्वियों से सौहार्द, गरीब के प्रति संवेदना और सेवा में वफादारी, पर्यावरण से जुड़ाव और जीवों से लगाव, माटी की खुशबू और रोटी की मिठास।

खैर, आज मौका भी है और अवसर भी सोचो और संकल्प करो कामकाज की व्यस्तता में भी अपनो को समय दे सको, बुजुर्गों पर अपनापन लुटा सको। पड़ोसियों से मधुरता निभा सको। रिश्तेदारों की नजदीकियां पा सको। अधिकारियों का विश्वास हासिल कर सको। मातहतो पर भरोसा कर सको। नौकरी पर निष्ठा बहाल रख सको। दोस्तों से वफा कर सको। पानी को सहेजे रख सको। पर्यावरण से प्रीत कर सको। जीवों को प्यार दे सको। निर्बल को सम्बल और गरीब में संवेदना बांट सको। सोचो, कुछ ऐसा कर सको कि रिश्तों में फिर से गरमाहट भर सको। नया साल मंगलमय हो।

Tuesday, December 29, 2009

कैसे हो इकबाल बुलन्द

जिले में बुलन्द होते अपराधियों के हौंसले और कमजोर होता पुलिस का इकबाल आमजन को बेचैन बनाए हुए है। अपराधियों की सरेआम दहशतगर्दी की एक नहीं अनेक वारदातें हाल में घटित हुई हैं। पुलिसिया तंत्र है कि उसमें कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं देती। पुलिसिया वर्दी का रंग आचरण में घुसी घूसखोरी में फीका पड़ गया है। रुआब तो जैसे अब रहा ही नहीं। पुलिसिया डण्डे को मानवाधिकार का लकवा मार चुका है। खुफियातंत्र दूर संचार क्रांति के ज्वर से संक्रमित है। शेष रहा क्या? निगरानी व्यवस्था? उसे पुलिस थाने और चौकियों की नफरी मार गई। अब बचा पुलिसिया इकबाल! उसका निगोड़ी राजनीति ने टेटुआ दबा रखा है। ऐसे में आमजन में विश्वास और अपराधियों में डर जैसे पुलिस के ध्येय वाक्य की अहमियत ही खत्म हो गई।आमजन भयभीत और समाजकंटक संरक्षित नजर आने लगे हैं। बच्चे से बूढ़े तक बेटी से दादी तक ने जान-माल की सुरक्षा और संरक्षा खुद के बूते या फिर भगवान भरोसे छोड़ दी है। सोमवार को जिले का सादुलपुर कस्बा एक बार फिर सुर्खियों में आया। न्यांगली और संजय नायक हत्या काण्ड की फाइल अभी पूरी तरह बंद नहीं हुई कि एक कारोबारी के गोली मारकर सरेराह ढाई लाख रुपए लूट की घटना ने हर आम और खास को हैरत में डाल दिया। पुलिस ने तो अभी घटना की ठीक से जांच ही शुरू नहीं की थी कि लुटरों को पहचानने वाले को टेलीफोन पर मिली जान से मारने की धमकियों ने इतना दहशत में ला दिया कि उसने मंगलवार सुबह खुदकुशी कर ली। अठारह वर्षीय इस नवयुवक ने अपनी जान को जोखिम में मानकर पुलिस से सुरक्षा की गुहार भी की थी। यहां चौंकाने वाली बात यह है कि घटना के कुछ समय बाद ही नवयुवक के पुलिस थाने पहुंचने की सूचना लुटेरों को कैसे मिली? क्या पुलिस थाने में अथवा बाहर लुटेरों के गुर्गे निगरानी रखे हुए थे? यदि यह सही है तो और भी अधिक गंभीर बात है। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब युवक ने उसे फोन पर मिल रही धमकियों की जानकारी पुलिस को दी थी तो पुलिस ने उसे ही सुरक्षा घेरे में क्यों नहीं लिया? गोलियां चलाकर भागने वाले लुटरों से युवक की हिफाजत में घर पर निहत्थे सिपाहियों की तैनातगी के क्या मायने थे? अब तक यह बात भी स्पष्ट हो चुकी थी कि लुटेरों में से एक को वह पहचानता था। क्या हाथ आए गवाह को सुरक्षा मुहैया कराना पुलिस का धर्म और दायित्व नहीं था? जो भी हो पुलिसिंग में रही कमजोरी किसी न किसी रूप में इस हादसे के लिए जवाबदेह तो है ही। पुलिस प्रशासन को चाहिए कि वह सीएलजी की कथित खानापूर्ति वाली बैठकों से ऊपर उठकर आमजन में पुलिस का विश्वास कायम करने के लिए विचार करे। साथ ही समाजकंटकों के आगे कमजोर होते पुलिसिया इकबाल को बुलंद रखने के लिए ठोस कदम उठाए। अन्यथा खुद की सुरक्षा में लोग लामबंद होने लगे तो शांति व कानून व्यवस्था बनाए रखने में बड़ी मुश्किल होगी।

Thursday, December 24, 2009

कौन भुगतेगा खामियाजा

सन्तोष गुप्ता

नैतिक और सामाजिक मूल्यों ने निरंतर आ रही गिरावट आखिर कहां जाकर थमेगी यह विचार अब लाजिमी हो गया है। शिक्षा जैसे पवित्र पेशे में नैतिक मूल्यों क हृास समाज के हर व्यक्ति के लिए चिंतनीय है। दो दिन पहले दसवीं कक्षा की अद्र्धवार्षिक परीक्षा का गणित का परचा आउट होने की खबर कानोंकान शहर में तैर रही थी। शिक्षा विभाग के आला से अदना अधिकारी ने इस पर कान नहीं धरे। समाचार पत्रों में इससे संबंधित समाचार सुर्खियों में साया हुए परन्तु शिक्षा अधिकारियों ने इस पर भी गौर नहीं किया। मामला चूंकि दसवीं की अद्र्धवार्षिक परीक्षा का था इसलिए संभवतया शिक्षा अधिकारियों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसके पीछे तर्क यह हो सकता है कि इस परीक्षा से परीक्षार्थी के सालाना परिणाम पर कोई असर नहीं होना था। परीक्षार्थियों को भी सिर्फ बोर्डपरीक्षा परिणाम से मतलब है इसलिए न अध्ययनरत परीक्षार्थी बोले न ही उनके अभिभावकों ने भंग हुई गोपनीयता के विरुद्ध मुंह खोला। बुधवार कक्षा नौ के गणित द्वितीय का प्रश्न पत्र लीक होने की चर्चा सुबह नौ बजे से जंगल में आग की तरह शहर में फैली। जिरोक्स की दुकानों व स्टेशनरी के व्यापारियों ने तो आवाज लगा कर बीस रुपए प्रति कॉपी की दर से सैकड़ों विद्यार्थियों को प्रश्न पत्र बेच डाले। इस हालत को देखकर जागरूक नागरिक का जमीर जाग गया। नैतिकता के पतन की हद उसे देखी नहीं गई। उसने पत्रिका को फोन पर इसकी सूचना ही नहीं दी सुबह पौने दस बजे तक प्रश्न पत्र की एक जिरोक्स प्रति पत्रिका कार्यालय पर भी पहुंचा दी। अब यह जांच का विषय हो सकता है कि प्रश्न पत्र लीक कहां से हुआ? किसने, किस लालच में गोपनीयता भंग की? शासन-प्रशासन उसे सजा भी दे देगा। पर सवाल यह उठता है कि इसका खामियाजा भुगतेगा कौन? उन विद्यार्थियों के समय और श्रम की क्या कीमत होगी जिन्होंने दिनरात एक कर मेहनत की और परीक्षा दी। उनके अभिभावकों ने जाड़े के दिनों में रातों की नींद और दिन का सुकून ताक पर रखकर बच्चों को पढ़ाया। घर खर्च में कटौती कर उन्हें ट्यूटोरियल कक्षाओं में भेजा। नतीजा क्या रहा? चंद अवसरवादी विद्यार्थियों अथवा एक दो समाजकंटकों के कारण समान परीक्षा से जुड़े करीब छह सौ विद्यालयों के दो लाख से अधिक बच्चों की मेहनत पर पानी फिर गया। परीक्षा जैसे मामले में गोपनीयता बरती जाना समाज की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। यह जिम्मेदारी प्रश्न पत्र बनाने वाले शिक्षक से शुरू होकर उसके मुद्रित होने, वितरण के लिए लिफाफा बंद होने तथा परीक्षा केन्द्र तक सुरक्षित पहुंचने तक उसे छूने वाले उन सभी हाथों की है जो व्यक्ति उससे जुड़ा है। इसमें से किसी भी स्तर पर रही मामूली त्रुटि समय, श्रम और धन की बर्बादी का कारण बन जाती है। पहले भी ऐसी ही घटनाएं हुई हैं। प्रश्न पत्र आउट करने वाले पकड़े गए, सजा भी हुई पर घटना की पुनरावृति नहीं रुकी? सोचा यह जाना है कि क्या दो लाख बच्चों की परीक्षा दोबारा कराना ही इसका एक मात्र विकल्प और हल हो सकता? इसमें पढऩे वाले मेहनत करने वाले बच्चों का दोष क्या है? खता कोई करे सजा कोई भुगते क्या इसे न्याय संगत कहा जा सकता? परचा आउट करने वाले, कराने वाले और बेचने वाले सभी को शीघ्र बेनकाब कर इस समाजिक अपराध की सख्त से सख्त सजा निर्धारित तो होनी ही चाहिए। विद्यार्थियों के हित में किसी और विकल्प पर भी विचार होना चाहिए जिससे समय, श्रम और धन की बबार्दी से बचा जा सके।santosh.gupta@epatrika.com

Wednesday, December 23, 2009

जनअपेक्षाओं पर कुठाराघात

सन्तोष गुप्ता

नगरपरिषद पर काबिज कांग्रेस बोर्ड की पहली साधारण सभा की बैठक में मंगलवार को जो हुआ उस पर शहरवासियों को अफसोस है। जनता की उम्मीद और अपेक्षाओं पर तो जैसे कड़ाके की ठंड में घड़ों पानी पड़ गया। साधारण सभा में जनप्रतिनिधियों का व्यवहार किसी भी दृष्टि से शोभनीय नहीं रहा। शिष्टाचार और संजीदगी की तो जैसे चिंदी-चिंदी होकर रह गई। अनुशासन की धज्जियां उड़ गई। सदन की गरिमा का रत्तीभर भी ख्याल नहीं रखा गया। सभापति के सीधे निर्वाचन और आधी दुनिया को आधा हक दिए जाने के बाद यह माना जा रहा था कि अब सदन में शांति और शालीनता का बोलबाला रहेगा। महिला जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी सदन में पुरुष सदस्यों के व्यवहार को मर्यादित, संजीदा और संस्कारिक बनाएगी। जनप्रतिनिधि चाहे वह पक्ष का हो या विपक्ष का शहर हित में त्वरित निर्णय करने में साझा समझ का परिचय देंगे। शहरी विकास और सौंदर्यीकरण की योजनाओं के क्रियान्वयन में किसी तरह की अड़चन नहीं होगी। मंगलवार को आहूत साधारण सभा में जो हुआ वह जनअपेक्षाओं के विपरीत ही रहा। जनप्रतिनिधियों में एक दूसरे के विरुद्ध तू-तड़ाक से वार्तालाप हुआ। महिला जनप्रतिनिधियों के साथ धक्का-मुक्की की गई। कुर्सियां उठाकर फेंकने की कोशिश हुई। इतना ही नहीं किसी प्राथमिक स्कूल के बच्चों की तरह जनप्रतिनिधि मेजों पर चढ़कर चीखे-चिल्लाए। अधिकारी के हाथ से दस्तावेज छीन कर फाड़ दिए गए। सदन में बेहूदगी की हद तो तब पार हुई जब धक्का-मुक्की के बीच ही महिला जनप्रतिनिधियों के साथ अभद्रता कर दी गई। महिला जनप्रतिनिधियों का जिला कलक्टर से मुलाकात कर उनके साथ हुई अभद्रता की शिकायत करना अत्यंत गम्भीर चिंता और चिंतन की बात है। यहां यह भी विचारणीय है कि जनता के अकूत मत और अटूट विश्वास के बूते चुने सदन में ऐसी नौबत ही क्यों आई? इसे सदन चलाने वालों की अपरिपक्वता कहें या सांगठनिक कमजोरी। होना तो यह चाहिए था कि सदन में नवनिर्वाचित सभापति साधारण सभा की बैठक बुलाने से पहले पक्ष और विपक्ष के प्रतिनिधियों को विश्वास में लेकर साझा प्रस्ताव तैयार करते। सदन में शहरी विकास को लेकर वे अपना पांच साला दृष्टिकोण रखते। नगरपरिषद की माली हालत से सदन को अवगत कराया जाता और आय बढ़ाने के लिए चुने गए प्रतिनिधियों से ही सुझाव लिए जाते। परिषद के साधन-संसाधन बढ़ाने और शहरी समस्याओं को प्राथमिकता से निस्तारित करने की रूपरेखा तैयार की जाती। पहली साधारण सभा के एजेण्डे में विवादित प्रस्तावों का रखा जाना राजनीतिक सूझबूझ की कमी को ही नहीं परिषद में पदस्थापित प्रशासनिक कारिंदों की निष्पक्ष बुद्धिमता पर भी सवाल खड़े करने वाली है। बहरहाल, अभी तो शुरुआत है, सदन में हुई गलतियों से सबक लिया जाए तो अगली बैठकों में शहरवासियों का हित साधा जा सकता है।

santosh.gupta@epatrika.com

Tuesday, December 22, 2009

कायम हो वर्दी का विश्वास

भीलवाड़ा। बहुत पुरानी कहावत है पहले मारे सो मीर। मतलब यह कि सामने वाले के चक्षु खुलने तक हाका कर पूरे गांव को अपने पक्ष में कर लेने वाला ही होशियार। बेगूं के विधायक राजेन्द्रसिंह विधूड़ी को राह चलते दो सौ रुपए की सेवा बताने की घटना ने सबकी आंखें खोल दी। परिवहन महकमे के आला से लेकर अदने से अफसर ने भरे चौराहे शर्र्मिंदगी महसूस की। खाकी वर्दी का रंग और रुआब तो एसीबी के पाउडर लगे नोट की तरह धुलकर उतर गया। वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर वसूली के लक्ष्य पूरे करने को लेकर महकमे की कार्य व्यवस्था लडख़ड़ा गई। महकमे पर यह ऐसा हमला था जैसे किले की पहरेदारी में चौकस सिपाहियों पर रात के तीसरे पहर दुश्मन ने हमला बोल दिया। ऊनींदा सिपाही अपने को संभालते जब तक पहरेदारी में कोताही की राजा को खबर हो गई। अब भला सिपाहियों की दलील कौन सुने? सो परिवहन महकमे का उपनिरीक्षक अब चिल्ला-चिल्लाकर भी कहे कि वह निर्दोष है तो उसकी कौन माने? चलिए यदि कोई अब उसकी बात मानने को तैयार नहीं तो न हो, उसे अनसुना भी नहीं किया जा सकता है? यदि वह यह कहना चाहता है कि जहां से धुआं निकल रहा है वहां ऐसे आग लगी थी तो उसमें हर्ज क्या है?

आखिर उसकी बात में सच्चाई होगी तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।कौन नहीं जानता राजनीति के हीरो विलेन के हाथों शिकस्त खा भी जाएं तो अपने धनबल-भुजबल और छल-बल से फिर प्रभाव जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उपनिरीक्षक का कहा सच मानें तो लोकसेवक के सुरक्षा गार्ड ने राजकीय कामकाज कर रहे राजकीय कर्मचारी पर पहले तो अमानुषी हमला किया और फिर स्वयं की पहचान छिपाते हुए अपकथन कहे। हद तो तब हो गई जब लोकतंत्र के प्रहरी ही राजकीय सेवक को उठा ले गए। मामला उलटा पड़ता नजर आया तो लोगों को बुलाकर उनकी आंखों के सामने ऐसा ड्रामा रचा कि खाकी वर्दी का रंग सड़क की तरह काला पड़ गया।

यहां समझने वाली बात यह है कि लोकतंत्र में लोकसेवक और उसके सुरक्षा गार्ड को कानून हाथ में लेने के यह अधिकार दिए किसने? सड़क पर जाम लगना तो आम बात है। लोकसेवक थोड़ा संयम और धैर्य का परिचय देते तो अवरुद्ध मार्ग उनके लिए सुगम और सहज होते देर नहीं लगती। यूं भी सोचा जाए तो आलीशान गाड़ी में सुरक्षागार्ड के साथ बैठे किसी भद्र पुरुष से भला कौन मूर्ख सेवा करवा कर अपनी और महकमे की भद पिटवाएगा।

सत्य को कुछ समय के लिए झुठलाया जा सकता है मिटाया नहीं जा सकता। अब भले ही सरकार ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं। परिवहन आयुक्त ने जांच भी शुरू कर दी है। जांच की सांच का खुलासा जब होगा तब होगा। तब तक परिवहन महकमा चौराहे पर शर्र्मिंदगी झेलता रहेगा। परिवहन महकमे को भी चाहिए कि वह अपनी कमजोरियों को भी जांचे। कामकाज में पारदर्शिता लाए। यदि उपनिरीक्षक का कहा सत्य पाया जाता है तो फिर बिना किसी दबाव के लोकसेवक और उसके फरमाबरदार के विरुद्ध भी वैसी ही विधिसम्मत कार्रवाई अमल में लाई जाए जिससे लोगों में वर्दी का विश्वास और रुआब बना रहे। -सन्तोष गुप्ता

इस मर्ज की क्या है दवा

भीलवाड़ा जिले के आसींद तहसील स्थित ग्राम संग्रामगढ़ निवासी भंवरलाल की छह माह की पुत्री ममता अब सिर्फ भंवरलाल की ही नहीं रही। वह हर उस शख्स की ममता पा गई जिसमें तनिक भी मानवीय संवेदना शेष है। जिसने भी ममता के लिए भंवरलाल को तड़पते देखा, ममता की मौत की खबर ने उसे रुला दिया। आधुनिक चिकित्सकीय सुविधाओं और श्रेष्ठतम चिकित्सकों की टीम होने के बावजूद खून की कमी से पीडि़त मासूम की जान न बचा पाना निसंदेह सभी के लिए अफसोसजनक रहा। महात्मा गांधी चिकित्सालय में जमा पचास-सौ लोगों की तो भृकुटियां तन गई। पर, कर कोई कुछ नहीं सका। इन चिकित्सालयी अव्यवस्थाओं से हर कोई रू-ब-रू हो रखा है, लेकिन हर एक ने अपनी हैसियत के अनुसार व्यवस्थाएं बना ली है।

गांव का भंवरलाल ही ऐसा अभागा रहा जो ममता की खातिर चिकित्सालयी माया को न समझ पाया। भंवरलाल की आंखों में आंसू झलझला उठे थे। चेहरा भावशून्य दिखाई दे रहा था। होठ तो जैसे किसी ने सिल दिए हों। उसके पास अब न कुछ कहने को बचा था और न कुछ सुनने को। राष्ठ्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर बने अस्पताल का हर दर-ओ-दीवार अब उसे बेमानी लगने लगे थे। यहां जमा लोग भले ही उससे हमदर्दी रखते हो पर उसके लिए वे सब तमाशबीन से ज्यादा नहीं थे।

उसने कोई जुआ नहीं खेला फिर भी यहां सब कुछ हार चुका था। दांव पर लगाने को तो उसके पास पहले ही कुछ नहीं था। एक अदद उम्मीद थी। जिसके भरोसे वह अपनी फूल सी नाजुक बच्ची को जिन्दगी के दो घूंट पिलाने की आस में दौड़ा चला आया था। चिकित्सालय के कागजी भंवरजाल में ऐसा उलझा कि उसकी आंखों का नूर कब आसमान का तारा बन उससे दूर हो गया उसे एहसास ही नहीं हो सका। भंवरलाल आंखें फाड़कर चिकित्सक के आने की ही बांट जोहता रहा और यमराज बिना आहट के उसकी ममता को छीन ले गया।

कहते हैं ईश्वर के बाद यदि धरती पर इंसान को किसी पर सहज भरोसा होता है तो वह चिकित्सक ही है। चिकित्सक को आज भी मान और इज्जत बख्शी जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि माया के भंवरजाल में फंसे चिकित्सकीय पेशे में तो मानवीय संवेदनाएं कुपोषण के शिकार किसी दीन-हीन की गुम होती नब्ज की तरह टटोलने पर भी हाथ नहीं आ रही। कहीं कोई ठोस निगरानी नहीं है। कहीं मरीज की पर्ची पर कमीशन की दवाइयां लिखने के चर्चे आम हैं तो कहीं मरीज को वार्ड में भर्ती से पहले मुट्ठी गर्म करने का रिवाज हो गया है। रुई और पट्टी से लेकर रोग प्रतिरोधक और जीवनरक्षक दवाओं का अभाव गांव की डिस्पेंसरी से लेकर बड्े चिकित्सालयों तक है। यही कारण है कि कथित चिकित्सकीय अनदेखी और लापरवाही को लेकर चिकित्सालयों में हंगामे और तोडफ़ोड़ के किस्से हर रोज सुनने को मिल रहे हैं। पर इस मर्ज की दवा नहीं मिल रही।

महात्मागांधी चिकित्सालय को ही ले तो गत वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि यहां शिशु मृत्यु दर सालाना दस प्रतिशत से अधिक है। यह दर राष्ट्रीय शिशु मृत्युदर की तुलना में दुगनी है। राष्ट्रीय शिशु मृत्युदर 5.7 प्रतिशत है। यहां यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि मरने वाले बच्चों में 20 फीसदी जन्म के साथ ही श्वास की तकलीफ व 12 प्रतिशत खून की कमी से मौत का निवाला बन जाते है। चिकित्सकों की राय में खून की कमी से पीडि़त बच्चों को तो रोग प्रतिरोधक दवाएं देकर बचाया जा सकता है। श्वास से पीडि़त बच्चों के लिए तो सिर्फ शिशु रोग चिकित्सक की सतर्कता ही काफी है। बावजूद महात्मागांधी चिकित्सालय में इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। चिकित्सालय प्रबन्धन और स्वयं चिकित्सक संकल्पित हो जाएं तो फिर किसी की ममता यूं रोगोपचार के अभाव में आंसू नहीं बनेगी। ना ही कोई भंवर व्यवस्थाओं को न समझने पर तमाशा बनेगी।

निर्दलियों ने बनाया मुकाबला रोचक

प्रमुख संगठन भितरघात के फ्लू से पीडि़त

मौजूदा तथा पूर्व विधायक की प्रतिष्ठा दांव पर

कुल मतदाता- 74 हजार 369

पुरुष मतदाता-39 हजार ४०१

महिला मतदाता-34 हजार 968

नए मतदाता-10 हजार ३८२

पिछला मतदान प्रतिशत-72

(नगर पालिका चुनाव)

चूरू, 22 नवम्बर। निर्दलियों की मौजूदगी ने चूरू नगरपरिषद सभापति का चुनाव त्रिकोणीय और रोचक बना दिया है। निर्दलियों को मिलने वाले मत प्रमुख पार्टी प्रत्याशियों के हार-जीत का अंतर तय करते दिखाई दे रहे हैं। मुख्य रूप से यहां कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी में कांटे की टक्कर है। कांग्रेस में जहां विधायक हाजी मकबूल मण्डेलिया की प्रतिष्ठा दांव पर है तो भाजपा में पूर्व मंत्री एवं तारानगर विधायक राजेन्द्र राठौड़ की पैठ। दोनों ही संगठन भितरघात के फ्लू से भी आशंकित है। यह बात दीगर है कि जहां कांग्रेस प्रत्याशी गोविन्द महणसरिया की जीत के लिए विधायक हाजी मकबूल मण्डेलिया और ऑल इण्डिया हैण्डीक्राफ्ट बोर्ड के उपाध्यक्ष रफीक मण्डेलिया ने दिन-रात एक कर दिए हैं। लेकिन प्रत्याशी के चयन में पार्टी के जुझारू कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ने संगठन की एकजुटता में खटास ला दी है। वहीं भाजपा प्रत्याशी रमाकांत ओझा को जिताने में राजेन्द्र राठौड़ ने चूरू की गली-गली नाप दी है। लेकिन मतदाता है कि वह अपने मन की पाती किसी को पढऩे नहीं दे रहा। ऐसे हालात में चुनाव मैदान में ताल ठोक रहे निर्दलीय प्रत्याशी और कांग्रेस के बागी गौरीशंकर मण्डावेवाला, मोहम्मद असलम खान, सलीम गुर्जर, संतकुमार सारस्वत, कैलाश चंद्र तथा सीपीएम के रमजान खान को मिलने वाले मत और दोनों ही प्रमुख पार्टियों में संगठन से जुड़े कार्यकर्ताओं की सोमवार को मतदान के दिन सक्रियता ही प्रत्याशियों की दिशा और पार्टी की दशा तय

क्या कहता है अतीत

चूरूवासियों ने स्थानीय निकाय चुनाव को लेकर कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के अनुसार सन 1971 से लेकर 1992 तक करीब बीस साल चूरू में नगर परिषद हुआ करती थी। आबादी का सीमांकन बढऩे से चूरू परिषद का दर्जा घट गया। सन् 2008 अक्टूबर तक चूरू में नगरपालिका बोर्ड रहा। 7 अक्टूबर को चूरू नगरपालिका को फिर से क्रमोन्नत कर नगर परिषद का दर्जा दिया गया। इस तरह पालिकाध्यक्ष रमाकांत ओझा ही नगर परिषद की दूसरी पारी के पहले सभापति हो गए। इससे पहले पालिका बोर्ड में अध्यक्ष गौरीशंकर मण्डावेवाला रहे। यह चुनाव वे निर्दलीय के रूप में जीते थे। बोर्ड अध्यक्ष बनने के लिए उन्होंने भाजपा सदस्यता स्वीकार कर ली थी। आज से करीब तीन साल पहले मण्डावेवाला पार्टी बदलकर कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में उनका कांग्रेस से भी मोहभंग हो गया। नतीजतन वर्तमान स्थानीय निकाय चुनाव में उन्होंने दोनों ही पार्टी प्रत्याशियों के विरुद्ध निर्दलीय के रूप में ताल ठोककर मुकाबला रोचक व त्रिकोणीय बना दिया।

- भाजपा प्रत्याशी

रमाकांत ओझा

क्या है ताकत

बेदाग छवि

कुशल व्यवहार

जातिगत आधार

संगठन से जुड़ाव

सभापति पद का अनुभव

क्या है कमजोरी

सभापति पद पर रहते स्वाभाविक नाराजगी

भाजपा बागी होने का दाग

कांग्रेस प्रत्याशी

-गोविन्द महनसरिया

क्या है ताकत

राज्य में कांग्रेस सरकार

कांग्रेस का जमीनी कार्यकर्ता

विधायक का वरदहस्त

बेदाग छवि, मिलनसार

अल्पसंख्यकों का समर्थन

क्या है कमजोरी

कांग्रेस के बागी की मैदान में मौजूदगी

मतों का विभाजन

Tuesday, December 1, 2009

जागरुकता बढ़ी रोगी हुए नहीं कम

विश्व एड्स दिवस आज
चूरू, 30 नवम्बर। जिले में एड्स रोगियों की संख्या बढ़ रही है। इस साल में अब तक करीब तैंतीस रोगी एड्स पॉजीटिव पहचाने जा चुके हैं। इनमें तीन तो गर्भवती महिलाएं हैं। गत वर्ष की तुलना में एड्स रोगियों की संख्या में करीब ग्यारह की वृद्धि हुई है।
यह बात ओर है कि एड्स की जांच के प्रति लोगों की जागरुकता काफी बढ़ी है लेकिन एड्स से बचाव के प्रति सावधानी बरतने पर ध्यान उतना ही कम दिया जा रहा है।जिला मुख्यालय स्थित डेडराज भरतीया अस्पताल और थ्रू नेटवर्क व पॉजीटिव वूमन नेटवर्क नामक स्वयं सेवी संस्थाओं से मिली तथ्यात्मक जानकारी के अनुसार जिले में उपखण्ड स्तर पर एड्स रोगियों का आंकड़ा चौंकाने वाला है।
थ्रू नेटवर्क के अध्यक्ष आसुराम जांगिड़ के अनुसार चूरू जिले में अब तक करीब चार सौ एड्स रोगी पहचाने जा चुके हैं। इनमें सर्वाधिक करीब एक सौ रोगी सुजानगढ़ उपखण्ड के हैं। पैंतालीस रोगियों के साथ सरदारशहर दूसरे नम्बर पर आता है। राजगढ़ में चालीस एड्स पॉजीटिव हैं वह इस मामले में तीसरे पायदान पर है जबकि रतनगढ़ और चूरू शहर में करीब तीस से पेंतीस रोगी हैं। तारानगर इस मामले में पांचवे स्थान पर है यहां सिर्फ छह रोगी पहचाने गए हैं।बकौल आसुराम चिंता और चिंतन की बात तो एड्स पीडि़त बच्चों को लेकर है। जिले में करीब 42 बच्चे एड्स पीडि़त हैं।
इनमें से करीब एक दर्जन अनाथ हैं। शेष बच्चों में किसी के मां है तो किसी के पिता जीवित हैं। चूरू शहर की एक एड्स पॉजीटिव बच्ची को तो हाल ही में जयपुर स्थित पॉजीटिव वूमन नेटवर्क की संचालक मुकेश यादव को सौंपा गया है। बच्ची के परिवार में पिता नहीं है। मां है किन्तु उसकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। बकौल मुकेश यादव उसके पास करीब पन्द्रह बच्चे हैं जिनकी वह देखभाल करती है। इनमें अकेले चूरू ही नहीं बल्कि सीकर, झुंझुनूं के भी एक-एक बच्चे भी हैं। इसके अलावा बाड़मेर, उदयपुर, जालौर, कोटा आदि जिलों के भी बच्चे हैं।चूरू स्थित ऐंटी रिट्रोवायरल थैरेजी सेंटर (आसीटीसी) से मिली जानकारी के अनुसार पिछले एक-दो सालों में एड्स जांच के प्रति लोगों में जागरुकता देखी गई है। सेंटर पर सालाना एक से डेढ़ हजार लोग जांच एवं काउंसलिंग के लिए आते हैं। इस वर्ष में अब तक गुजरे ग्यारह माह में ग्यारह सौ लोगों ने सामान्य रूप से जांच परामर्श लिया है। वहीं करीब सौलह सौ गर्भवती महिलाओं के रक्त जांच के साथ ही एड्स संबंधित जांच भी की गई है। इनमें से एड्स पॉजीटिव तीस मामले तो सामान्य जांच में तथा तीन मामले गर्भवती महिलाओं के रक्त जांच में सामने आए हैं। गतवर्ष सामान्य परामर्श के लिए आए पन्द्रह सौ लोगों की जांच में बीस तथा करीब आठ सौ गर्भवती महिलाओं के रक्त जांच में एक मामला पॉजीटिव पाया गया था।

लोगों में पहले से जागरुकता बढ़ी है। लोग जननांगों में थोड़ी सी भी तकलीफ होने पर तुरन्त जांच के लिए आते हैं। जिन लोगों को परामर्श दिया गया है वे तो सावधानी भी अपनाते हैं। फिर भी लोगों को एड्स से बचाव के लिए सावधानियां बरतने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
प्रदीप अग्रवाल, प्रभारी आईसीटीसी, चूरू
स्क्रीनिंग पहले से अधिक गहन कर दी गई है। गर्भवती महिलाओं के रक्त की जांच के साथ एड्स संबंधित जांच को अनिवार्य कर दिया गया है। रक्त लेने और देने में मरीज के नजदीकी को ही प्राथमिकता दी जा रही है।
-डा. रवि अग्रवाल,प्रभारी ब्लड बैंक, डेडराज भरतीया अस्पताल, चूरू
एड्स रोगी के प्रति परिवार का नजरिया अभी पॉजीटिव नहीं है। पहले समाज का नजरिया संवेदनशील हो तो ही समाज भी सकारात्मक होगा। एड्स पॉजीटिव महिलाओं को परिवार में सर्वाधिक प्रताडऩा व जिल्लत भुगतनी पड़ रही है जबकि उसका दोष तनिक भी नहीं होता। बच्चों के प्रति समाज को नजरिया अभी बदलना है।-मुकेश यादव
जिले में एड्स रोगी बढ़े हैं। सबसे ज्यादा रोगी सुजानगढ़ में हैं। पहचाने गए रोगियों को उपचार दिलाया गया है। फिर भी ग्रामीण स्तर पर लोगों में एड्स से बचाव के प्रति बरती जाने वाली सावधानियों पर ध्यान कम दिया जा रहा है।
-आसुराम जांगिड़, अध्यक्ष, थ्रू नेटवर्कूमन नेटवर्क ऑफ राजस्थान, जयपुर