दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Wednesday, September 22, 2010

कौन जाने हाल-ए-दशा

-सन्तोष गुप्तासावन से लेकर भादो तक बरसात का लगातार बना रहना अब आम जिंदगी को प्रभावित करने लगा है। जहां देखो वहीं जीवन की रफ्तार धीमी पड़ गई है। रोजमर्रा के कामकाज तक प्रभावित होने लगे हैं। हर आम और खास किसी न किसी को लेकर जान-माल की सुरक्षा की चिंता से ग्रसित है। काश्तकार को धान की तो व्यापारी को माल की सुरक्षा का ख्याल सता रहा है। नौकरी पेशा घर से दफ्तर तक सुरक्षित आवागमन के लिए मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करता नजर आता है। स्कूल और कॉलेज पैदल आने-जाने वाले बच्चों और बच्चियों की तो जैसे हर क्षण जान सांसत में ही बनी रहती है। जाने कब कौन किस घड़ी किस रूप में यमराज बन उन्हें लेने आ जाए? मंदिर-मस्जिद जाने वाले बुजुर्ग स्त्री और पुरुष तो अब घर की देहरी से बाहर कदम बढ़ाते ही राम और रहीम का जाप करने लगे हैं।जिले भर की सड़कों के हाल इतने बुरे और बदहाल है कि उनके लिए लिखने को ही शब्द सुझाई नहीं देते। गली-मोहल्ले से लेकर मुख्य बाजार और राष्ट्रीय राजमार्ग तक बद से बदतर खस्ता हालत में हैं। सड़कों पर लम्बे-चौड़े गड्ढ़े हर क्षण हादसे को दावत देते दिखाई देते हैं। पैदल चलने वाला हो या वाहन चालक सड़क से सुरक्षित गुजरना तो जैसे चुनौती हो गया है। इन्द्रदेव की मेहरबानी ने गड्ढ़े में पानी भर कर रही सही कसर पूरी कर दी है। जहां इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हुए हैं वहां की नगर परिषद की कथित अनदेखी या लापरवाही ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं। शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण कस्बाई हर जगह नाले और नालियां गंदगी के ढेर से अटी हुई हैं। नाले और नालियों में पानी के प्रवाह के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। उसमें इतना कूढ़ा-करकट भरा है कि मवेशी भी बिना फंसे और धसे उस पर से गुजर कर निकलने में फख्र महसूस करने लगे हैं। नाले और नालियों का पानी सड़कों पर दरिया की तरह बह रहा है। ऐसे में सड़कों पर गड्ढ़ों का पता ही नहीं चलता। कौनसा बढ़ता कदम जिंदगी का आखिरी कदम हो जाए? आए दिन सड़कों पर वाहनों के गड्ढ़े में गिरकर दुर्घटनाग्रस्त होने की सूचनाएं मिलती रहती हैं। लोग कहने लगे हैं कि सड़क पर गड्ढे हैं कि गड्ढ़े में सड़क? दुर्भाग्य तो यह है कि इस सब के लिए फिक्रमंद, चिंतक और आलोचक सब आम नागरिक ही है। उन लोगों को इन हालातों की कतई चिंता नहीं जो लोग इन समस्याओं के निस्तारण के लिए सक्षम और जवाबदेह हैं। जिला प्रशासन और नगरपरिषद व पालिकाओं में तो सड़कों की मरम्मत और नाले-नालियों की सफाई के लिए पहुंचने वाले ज्ञापनों को तो अब कचरे की टोकरी में भी नहीं डाला जाता बल्कि इनके बंडल बांधकर सीधे दफ्तरों में ही स्थित कुएं में पटक दिया जाता है। शहर और कस्बाई नागरिकों को पूरे आत्मविश्वास से भरोसा दिलाया जाता है कि समस्या का शीघ्र ही समाधान कर दिया जाएगा। जिले में चहुंओर हाल ही में स्थानीय निकाय चुनाव हुए हर किसी जनप्रतिनिधि ने अपने क्षेत्र की सड़क, सफाई और रोशनी की समस्याओं से निजात दिलाने का भरोसा दर्शाया था। आज कोई भी न सुनने वाला है न देखने वाला। जिला प्रशासन से तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है। बंद कमरों में बैठ कर बीस सूत्री, पंद्रह सूत्री बैठकों के आयोजन कर और आंकड़ों का पजलगेम खेल कर जनता जनार्दन को उल्लू बनाने के सिवाय कोई काम नहीं है। प्रशासन ने आपदा प्रबन्धन के लिए खास तौर पर इन्तजाम किए होते हैं। क्या बांध के टूटने पर ही वहां मिट्टी से भरी बोरियां डलवाई जाएंगी? खस्ताहाल सड़कों पर रखरखाव के कोई प्रबन्ध किया जाना जिला प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है? क्या प्रशासन को उनलोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करनी चाहिए जिनकी निगरानी और जिम्मेदारी में सड़कों का निर्माण होता है और वह निश्चित मियाद या उम्र से पहले ही उधड़ जाती है? ठेकेदार को नोटिस देना उसका पैसा रोक लेना ही क्या कार्रवाई की श्रेणी में आता है? उन अभियंताओं पर गाज क्यों नहीं गिराई जाती जिन्होंने जनता से लेकर सरकार तक का भरोसा तोड़ा है? संवेदनशील सरकार और जवाबदेह प्रशासन का यही प्रमाण है तो ओर बात है नहीं तो अब समय आ गया है जब सरकार और प्रशासन दोनों जनता की हाल-ए-दशा की सुध लेवें।

हो गई अग्नि परीक्षा

- सन्तोष गुप्तासादुलपुर में रेलवे स्टेशन पर मंगलवार रात्रि जो हुआ वह अप्रत्याशित ही नहीं अकल्पनीय था। जातरू बालिका की चीख से उठी चिंगारी ने दावानल का रूप ले लिया और प्रशासन मुंह ताकता रह गया। बालिका के साथ जो हुआ वह किसी पिशाच का ही काम हो सकता था। इन्सान के चेहरे में आबादी के बीच घूमते पिशाचों को भला कौन पहचाने? तकलीफ तो तब पहुंचती है जब किसी से रक्षा और सुरक्षा की आस लगाई जाए और वह ही भस्मासुर बन जाए। बालिका से ज्यादती हर हाल में असहनीय और निंदनीय कही जा सकती है। दोषियों पर इसके लिए खुदा का कहर भी बरपे तो कम होगा। पर पीडि़त के भाई का रेलवे सुरक्षा बल के जवानों से मदद मांगना गैरवाजिब किसी भी सूरत में नहीं कहा जा सकता। भले यह सही है कि रेलवे सुरक्षा बल की जवाबदेही रेलवे की सम्पत्ति के सुरक्षा और संरक्षा में है। रेल से सफर करते यात्री या रेलवे स्टेशन परिसर में विश्राम करते मुसाफिर के साथ होने वाली किसी भी आपराधिक वारदात का उनसे कोई वास्ता नहीं। इसके लिए राजकीय रेलवे पुलिस जिम्मेदार है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि खाकी वर्दी पहनने वाला किसी संस्था अथवा संगठन का सवैतनिक मुलाजिम पहले है या एक संवेदनशील इन्सान? इन्सान होने के नाते क्या समाज और प्राणी के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं? पीडि़ता की चीख और उसके भाई की गुहार सुन कर यदि प्रदेश और देश के कोने-कोने से आए विभिन्न जाति, धर्म, समाज और प्रांत के जातरुओं में मानवीयता और इन्सानियत जाग गई तो उन खाकी वर्दी वालों की संवेदना कहा चली गई? दोषियों को पकडऩा अथवा उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करना यदि रेलवे सुरक्षा बल के जवानों के क्षेत्राधिकार में नहीं था तो न सही, पीडि़त की मदद में सहानुभूति के दो बोल और सहायता में राजकीय रेलवे पुलिस से समन्वय का काम तो किया ही जा सकता था। वारदात की अनदेेखी और पीडि़त की पिटाई ने जातरुओं के रगो में बहने वाले लहू को किस तापमान तक उबाल दिया इसका नतीजा सबके सामने है। बरसों की पीड़ा और दशकों की मांग के बाद सादुलपुर के वाशिन्दों को बड़ी लाइन की गाडिय़ां और नया रेलवे स्टेशन नसीब हो पाया था। पलक झपकते समूचा रेलवे स्टेशन धू-धू कर जल गया। अब इसके फिर से दुरुस्त होने में कितना वक्त लगेगा फिलहाल कहा नहीं जा सकता। लाखों लोगों की मिन्नतें और मुरादों के बाद जब कोई चीज मिलती है तो उसके खोने का गम आसानी से नहीं जाता। रात के काले साए में स्टेशन के चहुंओर से उठती आग की लपटे ददरेवा मेले में लोकदेवता गोगादेव को धोक लगाने आए आस्थावान और श्रद्धावान जातरुओं के अन्र्तमन में धधकती ज्वाला का प्रत्यक्ष प्रदर्शन था। अब यह इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।हर कोई जानता है विपदा घंटी बजा कर नहीं आती। जब आती है तो सम्भलने का अवसर भी नहीं देती। इसी लिए शासन-प्रशासन प्रजा की सुरक्षा और संरक्षा के तमाम इंतजाम ऐहतियातन करके रखता है। सादुलपुर रेलवे स्टेशन पर शासन और प्रशासन की ओर से ददरेवा लखी मेले के चलते ऐसे कोई इन्तजाम नहीं होना खेदजनक है। ट्रेनों में जातरुओं के ओवरलोड पहुंचने से हर कोई वाकिफ था। इसे देखते हुए शासन और प्रशासन को पहले से ही अतिरिक्त फोर्स का इन्तजाम करना था। यहां तक कि मेले आयोजन में किसी भी स्थिति से निपटने के लिए सीसी टीवी कैमरे और रेपिड एक्शन फोर्स, वीडियो ग्राफी तो साधारण तैयारियों में गिनी जाती है। विशेष तौर पर तब जब देश में नक्सली और आतंकी घटनाओं की हर क्षण आशंका बनी हुई है। आरपीएफ, जीआरपी यहां तक की सिविल पुलिस भी स्टेशन परिसर में मौजूद हजार-डेढ़ हजार जातरुओं के रोष को घंटों तक काबू करने में नाकाम ही रही यह आश्चर्य जनक रहा। जिला मुख्यालयों पर बैठे आलाधिकारियों के घरों पर घंटियां भी कब से घनघनाती रहीं पर वे हरकत में तब आए जब हालात पूरी तरह हाथ से निकल गए। रेलवे सुरक्षा बल के दफ्तर पर पथराव, प्रदर्शन और कब्जा कर हथियार लूट ले जाना, जीआरपी थानाधिकारी की जीप को आग लगा देना आजादी के आन्दोलन सरीका सा नजारा था। सुरक्षा और संरक्षा के प्रहरियों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार पर आमजन का आक्रोश यदा-कदा देखने और सुनने को मिलता रहा है। श्रद्धा और आस्था में डूबी जनता का खाकी वर्दी के प्रति सम्मान और समर्पण भाव इस तरह टूटने लगेगा तो तमाम सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी। घटना के बाद रेलवे स्टेशन को त्वरित खाली कराया जाकर पुलिस अपने कब्जे में ले लेती तो भी ऐसा नहीं होता जैसा दावानल बाद में धधका। शेखावाटी अंचल खाटू श्यामजी, सालासर बालाजी, राणीसती, गोगामेढ़ी मेलों के आयोजन के साथ लोक संस्कृति के संरक्षण का वाहक रहा है। लाखों लोग रात-रात भर पैदल चलकर सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को अक्षुण्य बनाए हुए हैं। आने वाले कल में भी खाकी वर्दीधारियों ने जनता और लोकसेवा के प्रति अपने व्यवहार का आत्मावलोकन कर उसमें सुधार नहीं किया तो अंजाम क्या होगा कहा नहीं जा सकता। यदि इस घटना को प्रशासन की अग्निपरीक्षा कहा जाए तो वह तो इसमें फेल ही साबित हुआ।