दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Thursday, January 8, 2009

शर्र्मींदगी अनजानी! -2

मुझे शर्र्मींदगी है। अनजानी शर्र्मींदगी। यह मेरी अंतश्चेतना की है। मैं जानता हूं जिस घटना पर मैं शर्र्मींदा हूं उसकी उन्हें खबर भी न होगी। वे बहुत सहज हैं। अत्यंत सहृदय भी। मेरे लिए वे परम आदरणीय हैं और मेरे उज्ज्वल भविष्य के जनक भी। उनकी सरलता का कोई सानी नहीं। करीब आठ साल बाद पिंक पर्ल रिसोर्ट में डिनर पर उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात क्या हुई, साक्षात हुआ। मेरा अभिवादन स्वीकार करते ही उन्होंने मुझे नाम से संबोधित करते हुए कुशलक्षेम पूछी। मैं चकित रह गया। इतने वर्र्षों में मेरा रंग-रूप, काया-चेहरा सब बदल चुका है। बदन पर मोटापा झलकने लगा है। पेट बाहर आ गया है। चेहरे ने गंभीरता ओढ़ ली है। मेरी अल्हड़ता और मुस्कान मुझे ही सौतेली लगनी लगी है। ऐसे में उनका मुझे न सिर्फ पहचान पाना, बल्कि उतनी ही आत्मीयता और सहजता से आगे होकर संवाद कायम करना मेरे मन में उनके प्रति आदरभाव को और बढ़ा गया। यह मेरे लिए ऐसा था जैसे स्वजनों की भीड़ में किसी खास अपने को खोजते नन्हें बच्चे को अचानक कोई स्नेहभाव से बाजुओं से पकड़कर गोद में उठा ले। मैं तो उनके अपनेपन का वैसे ही कायल था। पत्रिका अजमेर संस्करण का शुभारंभ करने की तैयारियों के दिनों में उपयुक्त भवन अथवा भूखण्ड की तलाश के वक्त उनसे पहली मुलाकात हुई थी। इस काम के लिए बनी विशेष टास्क टीम में मैं भी था। मैंने ही तीन-चार भूखण्ड और भवन के प्रस्ताव जुटाकर मुख्यालय भिजवाए थे। जिन्हें देखने स्वयं महाप्रबंधक एचपी तिवारीजी अजमेर पहुंचे थे। अत्यंत साधारण स्वभाव के धनी तिवारीजी ने पहली ही मुलाकात में मेरे अंतर्मन में जगह बना ली थी। अजमेर से विदा होते हुए मैंने बस स्टैण्ड के सामने जिस पान की दुकान से उन्हें पान खिलाया वहीं पर ही अजमेर संस्करण के लिए भवन की तलाश पूरी हुई। पान की दुकान पर खड़े मित्र ने ही मुझे श्री तिवारीजी के लौटने पर बताया कि रीको औद्योगिक क्षेत्र में रीको का ही गोदाम बिकाऊ है। जिस पर शैड और भवन दोनों ही बने हुए हैं। हमें तो सिर्फ मशीन लगानी है और अखबार निकलने लगेगा। मैंने मित्र की बात सुनकर अपना माथा पीटा। अफसोस किया कि यह बात वह तनिक भी पहले बता देता तो में अभी ही तिवारीजी को साथ ले जाकर मौका भी दिखा लाता। खैर जो बात मेरे वश में नहीं थी उसके लिए मुझे अफसोस नहीं करना चाहिए यह सोचकर मैंने अगले दिन इसकी पूरी पड़ताल कर ही तिवारीजी को सूचित करने का मानस बनाया। मुझे प्रसन्नता है कि सिर्फ उपयुक्त स्थान की तलाश पूरी होने की वजह से ही अजमेर संस्करण मात्र तीन माह में शुरू हो गया। संस्करण के स्थापना दिवस समारोह में मुझे मेरे इस सहयोग और श्रम के लिए संस्थान की ओर से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के हाथों मुझे शॉल ओढ़ाया गया। संस्थान के लिए जी-जान से किए गए छोटे से काम का इतना बड़ा मान पाकर मैं स्वयं को संस्थान का ऋणी पाने लगा। तब से आज दिन तक अपने स्वभाव और सरोकार के बूते संस्थान में अपना स्थान बनाया। आज मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता हूं। उच्च आदर्श और व्यक्तित्व के धनी तिवारीजी से जुड़ी एक घटना ने ही मुझे भीतर तक हिलाकर रख दिया। जिस पर मैं मन ही मन शर्र्मींदगी महसूस करता हूं। घटना आठ जनवरी 09 की है। पिंक पर्ल रिसोर्ट के कमरा नम्बर 401 में मैं अपने दो साथियों अमित शर्मा मार्केटिंग प्रभारी और वितरण प्रभारी अमित के साथ ठहरा हुआ था। कमरे में इंस्टेंट चाय का प्रावधान था। लेकिन पाउडर दूध और चाय के पाउच पर्याप्त नहीं थे। उपलब्ध पाउच से सिर्फ एक चाय ही बन सकती थी। और हम तीन जने थे। सुबह आठ बजे कॉन्फ्रेस हॉल में एकत्र होने की हमें जल्दी थी। हमें बताया गया था कि कॉन्फ्रेस में देरी से पहुंचे तो किसी भी रूप में दण्डित किए जा सकते हो! थ्री स्टार होटल के कमरे में चाय और अखबार के बिना दैनिक क्रिया से निवृत्त होना मुश्किल लग रहा था। रूम अटेंडेंट ने एक प्याला चाय की कीमत साठ रुपए और सिगरेट के एक पैकट की कीमत सौ रुपए बताई थी। हमने कमरे में चाय मंगाने के बजाय बनाना ही उचित समझा। मैंने चाय और दूध के वांछित पाउच उपलब्ध कराने का ऑर्डर कर अपने लिए चाय बना ली। चाय की प्याली हाथ में लिए मैं पलंग पर बैठा चुस्की भर रहा था। डेली न्यूज का ताजा अंक पढऩे में मशगूल था। दाएं हाथ की अंगुली में सिगरेट सुलग रही थी। यह मेरे पास उपलब्ध कोटे में से बची इकलौती सिगरेट थी। होटल के कमरे में बैठे बेफिक्र इस इकलौती सिगरेट का सुट्टा लगाने का आनन्द अलग ही था। मैं यदि ये कहूं आनन्द की इस अनुभूति को बयां करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि लाखों की लागत से बनाए अपने घर में मुझे ऐसा मौका अभी तक नहीं मिला। तभी अचानक कमरे का दरवाजा नोक हुआ। मैंने बिना विचारे ही यह जानकर कि रूम अटेंडेंट होगा अन्दर आने को कह दिया। दरवाजा खुला तो मेरे होश फाख्ता हो गए। मैं स्तब्ध रह गया। दिमाग ने तो जैसे काम करना ही बंद कर दिया। सोच और समझ सुन्न हो गई। पलंग पर बैठे मुझे लगा कि किसी ने मेरे पर घड़ा भर कर बर्फीला पानी उड़ेल दिया। मेरी खुली आंखों के सामने जो आकृति दिखाई पड़ रही थी वह तिवारीजी की थी। उन्होंने मुझसे पूछा क्या बाथरूम खाली है? मैंने कहा नहीं। और दरवाजा बंद हो गया। एक पल को ऐसा लगा कि आनन्द के इन क्षणों में भगवान देखने आए और अंर्तध्यान हो गए। दूसरे ही पल अहसास हुआ कि यह कैसा आनन्द? इस आनन्द से तो उनकी नजरों में मेरी छवि प्रभावित हो गई होगी? ऐसे हालात में पाया गया हूं जिसकी उन्हें उम्मीद न होगी? फिर खयाल आया कि बाथरूम खाली पूछने के बहाने वे कहीं हमें जांचने ही तो नहीं आए थे? इस घटना का खयाल आने पर अब तक मैं अपने आप को सहज नहीं कर पाता हूं। सोचता हूं कॉन्फ्रेंस में समय पर पहुंचने की उनकी भी मजबूरी होगी। अन्यथा वे खाली बाथरूम तलाशने हमारे कमरे में क्यों आते? फिर भी मैं अंतश्चेतना से शर्मींदगी महसूस करने लगा हूं। बंद कमरे में भी सतर्कता बरतने लगा हूं। सिगरेट पीने की खुद की कमजोरी से डरने लगा हूं। कमजोरी पर जीत का प्रयत्न और प्रार्थना करने लगा हूं।

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