दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Sunday, April 18, 2010

अपनों ने ही बना दी पराई

किस्से और कहानियां बनी पेयजल उपलब्धता,
आगामी सरकारी योजनाएं खटाई में पडऩे के आसार
सन्तोष गुप्ता/विश्वनाथ सैनी
चूरू, 18 अप्रेल। लोगों ने घरों में घड़े भरकर रखना बंद कर दिया था। गृहिणियां रात सुकून से सोने लगी थी। अल सुबह उठने और मीलों पैदल चलने व सिर पर घड़े रख पानी लाने की चिंता उन्हें सताती नहीं थी। मेहमान के आने पर बच्चे दौड़कर सीधे टूटी से गिलास में ही ताजा पानी भर ले आते थे। रात को दो बजे भी पानी की जरूरत होती तो टूटी खोलते ही पानी उपलब्ध हो जाता था। मवेशियों की खेळियां और परिंदों के परिण्डे तक दिन भर भरे रहते थे। गांव के लोग पानी का मूल्य समझने लगे थे। नल से
पानी व्यर्थ बहते कोई देख लेता था तो तुरन्त टोक देता था या खुद टूटी बंद कर देता था। चौबीस घंटे पीने के लिए शीतल, शुद्ध और स्वच्छ पानी की उपलब्धता बनी रहती थी। ये बाते भले ही अब किस्से और कहानी सी लगती हों लेकिन यह सच्चाई है जो अब चूरू, झुंझुनूं और हनुमानगढ़ वासियों की जुबान से किस्से और कहानी बनकर निकल रही है। समय का चक्का तो अपनी गति से चलता रहा। गांव के लोग उसकी चाल के साथ कदमताल नहीं कर सके। वह तो न चाल समझ सके न चरित्र जान सके। पीने के पानी के अभाव में जीते हुए उसे एकाएक जो सुकून मिला वह उसे भी संजोए नहीं रख सके। खुशी मिले उन्हें बमुश्किल एक दशक भी नहीं बीता अपनों के बीच ही अपनों के ही हाथों आपणी योजना पराई होती दिखी।
राजस्थान पत्रिका की टीम ने दम तोडऩे के कगार पर पहुंची आपणी योजना का हाल जाना तो हैरानी हुई। सिर्फ सात साल पुरानी योजना को समय के साथ सम्बल और समृद्धता मिलने के बजाय जिसने जब चाहा जहां मौका मिला पराई नार की तरह बुरीनजर डालने से बाज नहीं आया। अब ढाणी और गुवाड़ में लगी टूटी दिनभर खुली रहती है पर उसमें पानी की बूंद नहीं टपकती। पाइप से गांव तक पीने का पानी महीनेभर में आए कि पन्द्रह दिन में कुछ निश्चित नहीं रहा। महिलाओं की दिनचर्या प्रभावित हो गई। चौका-चूल्हे से पहले पीने के पानी की जुगाड़ में उनकी रातों की नींद उड़ गई और दिन का चेन जाता रहा। पानी का इन्तजार करना तो अब ग्रामीणों के बस में रहा ही नहीं सो हर कोई पानी के जुगाड़ में फिर सेे जुटा दिखा। पत्रिका टीम ने पाया कि इन्दिरा गांधी नहर से पानी छोड़े जानेसे लेकर गांवों में पानी पहुंचने के बीच की तमाम व्यवस्थाएं पानी संग्रहण, भण्डारण, शुद्धिकरण और वितरण नियत मानदण्डों पर कहीं खरी नहीं उतर रही। न तो पानी का संग्रहण अपेक्षित है न भण्डारण सुरक्षित और संरक्षित है। शुद्धिकरण और स्वच्छता तो भगवान भरोसे है। वितरण व्यवस्था उन्हीं लोगों ने चौपट कर रखी है जिन्हें उसकी चौकीदारी का जिम्मा सौंपा था। चूरू, झुंझुनूं और हनुमानगढ़ के सैकड़ों ग्रामीण और कुछ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए बनी जनसहभागिता के मूल आधार वाली पीने के पानी की इस योजना का इस तरह गला ही सूख जाएगा ऐसा तो योजना बनाने वाले ने भी कल्पना नहीं की होगी। हालात यह हैं कि आपणी योजना का वर्तमान ही नहीं उससे जुड़ी भविष्य की उज्जवल संभावनाएं भी पूरी क्षीण होती दिखाई देने लगी हैं।
राज्य सरकार तो चूरू की आपणी योजना को दिखा विश्व बैंक से इसे राज्य के अन्य जिलों में लागू करने का सुखद सपना देख रही है। जबकि स्थिति यह है कि योजना निकट भविष्य में चूरू में ही ठीक से संचालित हो सके इसमें संशय है। खुद जलदाय विभाग के अधिकारियों का दावा है कि कि जिन क्षेत्रों में योजना के जरिए पाइप लाइन से जलापूर्ति की जा रही है वहां इतने अवैध कनेक्शन है कि योजना का उस उपभोक्ता को लाभ दे पाना ही मुश्किल हो गया है जो कि सद्इच्छा से लाभ चाहता है।
मोटे अनुमान के अनुसार योजना से जुड़े गांवों में करीब तीस से चालीस हजार अवैध कनेक्शन हैं। यह सब कैसे हुए? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यदि इन सबकी जांच और झंझटों में उलझा न भी जाए तो कम से कम अब इस पर तो ठोस कदम उठाने की जरूरत है ही कि अवैध कनेक्शनों को काटा कैसे जाए? फिर यह कि योजना से जुड़े अंतिम छोर के व्यक्ति और गांव तक पानी पाइप के जरिए कैसे पहुंचाया जाए? यह सच्चाई है कि योजना की पाइप लाइन में नियमित पानी प्रवाह नहीं बने रहने से उसके जोड़ों में लगी रिंगों को दीमक चट कर जाती है। इससे स्थिति यह हो गई है एक किलो मीटर के रास्ते में बीसियों जगह रिसाव हो गए।
अब भला पानी भेजने वाले और पानी पाने वाले सबकी नीयत साफ भी हो तो आखिर तक पानी पहुंचने की स्थिति ही नहीं बनती। पम्प हाउस से निकलने वाला पानी गांव की टंकी तक पूरा पहुंचता ही नहीं तो गुवाड़ी में लगी टूटी से पानी टपकेगा कैसे? योजना को संचालित करने वाले जलदाय महकमें के कारिंदें ग्रामीणों को कहते हैं कि वे पूरा पानी भेज रहे हैं गांव में जिन लोगों ने अवैध कनेक्शन किए हैं उन्हें काट दे तो पाइप में पानी आ जाएगा। ग्रामीण कहते है कि अवैध कनेक्शन काट दिए फिर भी पानी नहीं पहुंचा क्यों कि लाइन में पूरा पानी छोड़ा ही नहीं जाता। उनका आरोप है कि विभाग के लोग पानी माफिया से मिलकर पानी बेच रहे हैं। पानी पंचायतों और विभागीय अधिकारियों के बीच चलती इस नूरा कुश्ती ने स्थिति यह कर दी कि पम्प हाउस के नजदीक के गांवों में भी पाइप लाइन के जरिए एक माह में भी जलापूर्ति नहीं की जा रही। टैंकरों से जलापूर्ति में सबकी चांदी बन रही है और पाइप लाइन दीमक चट कर रही है। पत्रिका टीम ने देखा कि मौजूदा हालात में पानी नहीं पीकर भी ग्रामीण सुरक्षित रह सकता है पानी पीकर तो उसे जलजनित बीमारी घेर ले तो कोई बड़ी बात नहीं। आपणी योजना का पानी जिस स्त्रोत से और जिस वितरिका के माध्यम से जिन जगहों पर होता हुआ जिस हालत में पहुंच रहा है, वह शब्दों में बयां करना मुश्किल है। फिर उसे जिस तरह से स्वच्छ और शुद्ध किया जा रहा है यह इस बात से समझा जा सकता है कि पानी के ऑटोमेटिक ट्रीटमेंट प्लांट वर्षों से बंद पड़े हैं।
अनुभवी तकनीकी रसायन विशेषज्ञ प्लांट पर नियुक्त ही नहीं है। अनुमान के आधार पर हैल्परों से पानी की शुद्धता व स्वच्छता व्यवस्था बनाई रखी जा रही है। इन सब हालातों में जलदाय विभाग के आला से अदने अभियंता चाहे जो दावे व वादे करते हो इसमें कोई दोराय नहीं कि मौजूदा हाल और हालात अपेक्षानुकूल नहीं रहे। फिर भी अभी बहुत समय है। पानी की कीमत को जाना जाए और उसके उपयोग के प्रति जागा जाए। रिस-रिसकर व्यर्थ बहते पानी और ईंट-ईंटकर ढहते साधन-संसाधन को बचाया जाए। इस बार सिर्फ एक तरफा नहीं बल्कि चौतरफा समझ, संकल्प और समर्पण की जरूरत होगी।

फैक्ट फाइल
1994- शुरुआत
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2003- गांव-गांव पहुंचा पानी
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2 हजार किमी में- उच्चगुणवत्ता की पाइप लाइन
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20 हजार वर्ग किमी- क्षेत्रफल में फैली
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24 घंटे- जलापूर्ति का दावा
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485 गांव व 05 कस्बे- वर्तमान में जुड़े हैं
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20 गांव-सरदारशहर के जुड़े ही नहीं
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70 गांव- योजना से कटने को हैं तैयार
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09 लाख- लोग लाभान्वित
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04 स्थानों पर-जल शुद्धिकरण सयंत्र
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02 स्थानों पर- बड़े जल भंडारण गृह


योजना की मूल भावना
भ-जल की गुणवत्ता संबंधी समस्याओं से जूझ रहे चूरू, झुंझुनंू व हनुमानगढ़ जिले के लगभग बीस हजार वर्ग किलोमीटर में पीने के लिए नहर का शुद्ध व स्वच्छ पानी मुहैया करवाने की दृष्टि से वर्ष 1994 में आपणी योजना बनाई गई। मरु क्षेत्र में भागीरथी साबित हुई आपणी योजना में करोड़ों रुपए का वित्तभार संयुक्त रूप से जर्मन सरकार व राजस्थान सरकार ने वहन किया। योजना के प्रथम चरण में 370 गांव व दो शहरों के लगभग नौ लाख लोग लाभान्वित होने थे।
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निशचित रूप से आपणी योजना में ढेरों विकृतियां पैदा हो गई हैं। वर्षों पुरानी इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। योजना की स्थिति दयनीय होने लिए ग्रामीण भी बराबर के जिम्मेदार हैं। प्रत्येक गांव में औसत ढाई सौ अवैध कनेक्शन हैं। सबसे अधिक समस्या राजगढ़ के गांवों में है। योजना के मूल स्वरूप को वापस लाने के लिए फिल्टर प्लांट, पाइप लाइन, साफ-सफाई, तीन सौ गांवों में मीटर बदलने तथा स्टाफ की कमी दूर करने के पांच सौ करोड़ रुपए के प्रस्ताव तैयार किए जा रहे हैं।
-श्रवण कुमार शर्मा, अधीक्षण अभियंता, आपणी योजना, चूरू


ना पूरा पानी, ना सफाई
घासला अगुना पम्प हाउस से जुड़े गांव भुम्भाड़ा में जलापूर्ति अनियमित है। पानी पंचायत भंग होने के कगार पर है। मेहलाणा, बास धेतरवाल व मेहलाणा दिखणादा व उत्तरादा में जलापूर्ति प्रभावित है। हौज के तल में खड्डा है, आधा पानी तो जमीन में ही समा जाता है। हौज की अर्से से सफाई ही नहीं हुई। पम्प का स्टाटर खराब पड़ा है। ब्लीचिंग पाउण्डर ही नहीं है। महलाणा के लोग पांच टंकियों पर कनेक्शन तथा घासला से रोजाणी बाइपास लाइन चाहते हैं।इसके लिए वे खाई खोदने को भी तैयार हैं।वर्तमान में योजना से झुंझुनूं व चूरू
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जिले के राजगढ़, तारानगर, चूरू, रतननगर व बिसाऊ कस्बा तथा करीब 485 गांव जुड़े हैं। योजना की अस्सी फीसदी दुर्गति अवैध कनेक्शनों के कारण हुई है। दस फीसदी व्यवस्थागत खामियां तथा दस फीसदी विभागीय लापरवाही भी जिम्मेदार है। योजना की सबसे बड़ी त्रास्दी यह है इसके शुरू होने के बाद से ही रख-रखाव पर कभी कोई बड़ी राशि खर्च नहीं की गई। इसे
बस चलाते गए। इसलिए वर्तमान में इस स्थिति का सामना करना पड़ा है।
-पीसी शर्मा, एक्सईएन, आपणी योजना, तारानगर
जारी...

Wednesday, April 14, 2010

पानी में आग बुझती कैसे?-

सन्तोष गुप्ता

भीषण गर्मी, सूखा और अकाल के हालत में चारा और पानी के लिए सड़कों पर उतरे ग्रामीणों की मंगलवार को जय-जयकार हो गई। ग्रामीणों की जय-जय होनी भी थी। चूरू में शायद यह पहला अवसर हो जब छत्तीस कौम और बिरादरी के लोग एक मुद्दे पर एक तम्बू के नीचे एक जाजम पर आकर बैठ गए हों। इसमें अहम बात यह थी कि वे मांगें माने जाने तक नहीं उठने के लिए एक साथ आकर बैठे थे। ग्रामीणों का नेतृत्व करने वाले तो उन्हें इतनी बड़ी संख्या में पहुंचने और पूरी दृढ़ता के साथ डटने का हौंसला देखकर ही सैल्यूट कर बैठे थे। प्रशासन को उनके जज्बे और जज्बात के आगे मजबूरन नतमस्तक होना पड़ा। अब रही शासन की बात तो उसके हाथ में कुछ रहा ही नहीं। दूर दराज के गांव और ढाणियों में बसे गरीब, दलित और किसान तक पीने का पानी और पशुओं को चारा मुहैया कराने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी जो बनती थी। शासन इससे पीठ कैसे दिखा सकता था।

जबकि जनता ने कड़ी से कड़ी जोड़ दी। इसलिए ग्रामीणों ने इधर पड़ाव डाला उधर सरकार में हलचल हो गई। सरकार ने तुरन्त पानी महकमे के सचिव को उनसे बातचीत के लिए भेज दिया। वरना ऐसे धरने और अनशन राज्य के हर जिला मुख्यालय पर हर दिन होते रहते हैं। कई ऐसी घटनाएं सुर्खियों में आई हैं जब जनता ने पानी के लिए आनाकानी करने पर जलदाय विभाग के कारिंदों के साथ दो-दो हाथ कर लिए या फिर दफ्तर को घेर लिया। सरकार इनमें से कितने पर संवेदनशीलता और तत्परता बरतती है किसी से छुपा नहीं है। चूरू की बात कुछ ओर थी। पहला तो यह कि ग्रामीणों की मांग शत प्रतिशत जायज थी। दूसरा उनकी अगुवाई पर भले किसी पार्टी विशेष की मोहर लगी हो पर उनके आगे चलने वाले नेता जमीन से जुड़े, जनता के विश्वास पात्र और सशक्त प्रतिनिधित्व के धनी थे। शासन को ऐसे हालात में अपनी कमजोरी भांपने में देर नहीं लगी। फिर शासन यह भी जानता था कि पानी में आग लगी तो बुझेगी कैसे? इस चिंगारी को हवा लगी तो पूरा प्रदेश इसकी चपेट में आ जाएगा। सो शासन ने बिना किसी हीलहुज्जत के ठीक उसी तरह जलदाय विभाग के कारिंदों पर आंखें तरेरी जैसे कोई सास नईनवेली बहू को सबक सिखाने के लिए बेटी को फटकार लगाती है। ऐसा करने से हुआ यह कि जनता की भी जय और शासन -प्रशासन की भी जय। जबकि अन्दरखाने सब जानते हैं कि पानी न तो किसी फैक्ट्री में बनाया जा सकता है न ही उसे किसी गुप्त गोदाम में छिपाकर रखा जा सकता है। यदि कुछ किया जा सकता है तो उपलब्ध पानी का कुशल वितरण और सार्थक व किफायती उपयोग किया जा सकता है।

इस कमजोरी को न तो प्रशासन दूर करना चाहता है न जनता इस कमजोरी पर जीत दर्ज करने को गम्भीर नजर आती है। प्यास लगने पर कुआं खोदने की पड़ चुकी आदत आखिर जाते से ही जाएगी। विभागीय कारिंदों ने समय रहते प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजे होते तो हाहाकार नहीं मचता। अब स्थिति यह है कि जो काम उन्हें छह माह पहले कर लेना था वह काम वे छह दिन कैसे करेंगे यह देखने की बात