दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Wednesday, April 14, 2010

पानी में आग बुझती कैसे?-

सन्तोष गुप्ता

भीषण गर्मी, सूखा और अकाल के हालत में चारा और पानी के लिए सड़कों पर उतरे ग्रामीणों की मंगलवार को जय-जयकार हो गई। ग्रामीणों की जय-जय होनी भी थी। चूरू में शायद यह पहला अवसर हो जब छत्तीस कौम और बिरादरी के लोग एक मुद्दे पर एक तम्बू के नीचे एक जाजम पर आकर बैठ गए हों। इसमें अहम बात यह थी कि वे मांगें माने जाने तक नहीं उठने के लिए एक साथ आकर बैठे थे। ग्रामीणों का नेतृत्व करने वाले तो उन्हें इतनी बड़ी संख्या में पहुंचने और पूरी दृढ़ता के साथ डटने का हौंसला देखकर ही सैल्यूट कर बैठे थे। प्रशासन को उनके जज्बे और जज्बात के आगे मजबूरन नतमस्तक होना पड़ा। अब रही शासन की बात तो उसके हाथ में कुछ रहा ही नहीं। दूर दराज के गांव और ढाणियों में बसे गरीब, दलित और किसान तक पीने का पानी और पशुओं को चारा मुहैया कराने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी जो बनती थी। शासन इससे पीठ कैसे दिखा सकता था।

जबकि जनता ने कड़ी से कड़ी जोड़ दी। इसलिए ग्रामीणों ने इधर पड़ाव डाला उधर सरकार में हलचल हो गई। सरकार ने तुरन्त पानी महकमे के सचिव को उनसे बातचीत के लिए भेज दिया। वरना ऐसे धरने और अनशन राज्य के हर जिला मुख्यालय पर हर दिन होते रहते हैं। कई ऐसी घटनाएं सुर्खियों में आई हैं जब जनता ने पानी के लिए आनाकानी करने पर जलदाय विभाग के कारिंदों के साथ दो-दो हाथ कर लिए या फिर दफ्तर को घेर लिया। सरकार इनमें से कितने पर संवेदनशीलता और तत्परता बरतती है किसी से छुपा नहीं है। चूरू की बात कुछ ओर थी। पहला तो यह कि ग्रामीणों की मांग शत प्रतिशत जायज थी। दूसरा उनकी अगुवाई पर भले किसी पार्टी विशेष की मोहर लगी हो पर उनके आगे चलने वाले नेता जमीन से जुड़े, जनता के विश्वास पात्र और सशक्त प्रतिनिधित्व के धनी थे। शासन को ऐसे हालात में अपनी कमजोरी भांपने में देर नहीं लगी। फिर शासन यह भी जानता था कि पानी में आग लगी तो बुझेगी कैसे? इस चिंगारी को हवा लगी तो पूरा प्रदेश इसकी चपेट में आ जाएगा। सो शासन ने बिना किसी हीलहुज्जत के ठीक उसी तरह जलदाय विभाग के कारिंदों पर आंखें तरेरी जैसे कोई सास नईनवेली बहू को सबक सिखाने के लिए बेटी को फटकार लगाती है। ऐसा करने से हुआ यह कि जनता की भी जय और शासन -प्रशासन की भी जय। जबकि अन्दरखाने सब जानते हैं कि पानी न तो किसी फैक्ट्री में बनाया जा सकता है न ही उसे किसी गुप्त गोदाम में छिपाकर रखा जा सकता है। यदि कुछ किया जा सकता है तो उपलब्ध पानी का कुशल वितरण और सार्थक व किफायती उपयोग किया जा सकता है।

इस कमजोरी को न तो प्रशासन दूर करना चाहता है न जनता इस कमजोरी पर जीत दर्ज करने को गम्भीर नजर आती है। प्यास लगने पर कुआं खोदने की पड़ चुकी आदत आखिर जाते से ही जाएगी। विभागीय कारिंदों ने समय रहते प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजे होते तो हाहाकार नहीं मचता। अब स्थिति यह है कि जो काम उन्हें छह माह पहले कर लेना था वह काम वे छह दिन कैसे करेंगे यह देखने की बात

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