दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Thursday, March 18, 2010

इतनी हिम्मत कहां से जुटाई

सन्तोष गुप्ता
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सरदारशहर के संवाददाता का पोस्ट किया समाचार पढ़ा मन बैचेन हो गया। पति के वियोग में तीन बच्चों की मां ने आत्मदाह जो कर लिया था। तीस वर्षीय जवान महिला का इस कदर जिंदा मौत को गले लगाना मेरी समझ से परे था। दिमाग के सारे दरवाजे जैसे झनझना उठे। आखिर उसने इतनी हिम्मत कहां से जुटाई होगी? कुछ दिन पहले ही समाचार मिला था एक प्रेमी युगल कीटनाशक पीकर दुनिया छोड़ चला। नफरत भरी दुनिया में प्यार करने का जोखिम उठाने वाले ये जिंदादिल इंसान भीतर से कितने कमजोर थे इसका पता उनके अलविदा होने पर चला। आर्थिक तंगी, शारीरिक लाचारी और लाइलाज बीमारी में मौत की साधना करने वालों के समाचार चूरू में आए दिन मिलते रहते हैं। हर बार मन इतना व्यथित हो जाता है कि फिर किसी काम में जी लगाना मुश्किल हो जाता है।
सोचता हूं आखिर ऐसा क्यूं हैं? विचार करता हूं तो पाता हूं कि जिस शहर में वार्डों की सीमा समाप्त होते ही पानी का स्वाद बदल जाता हो, जिव्हा नमकीन हो जाती हो। जिस शहर की फिज़ा में खुशबू की जगह दुर्गन्ध बसती हो। जहां सुबह चहचहाती चिडिय़ाओं और कहकहे लगाते तोतों या फिर गुटरगूं करते कबूतरों की आवाज कानों में मीठा रस घोलने के बजाय, रेत के धोरों में नजर गड़ाए दूर आकाश में उड़ती चील की कर्कस चित्कार सुनाई पड़ती हो। जहां शाम पड़े सूरज अस्त होते ही दिनभर की जीतोड़ मजूरी में थका बैशाखनन्दन का कराहना बरबर कानों में गूंजता हो। वहां ऐसा होना अनूठी बात नहीं लगती।
जिस शहर की गली-मोहल्लों में सैकड़ों खिड़कियों और झरोखों वाली बंद पड़ी पुरानी हवेलियां हर राहगीर को आते-जाते दिन में बीसियों बार दिखाई देती हो। यहां के खेत और खलियानों में या शेष रहे उद्यानों में भी हरियाली और ताजी हवा के झोंके निषेध हो चले हों वहां के लोगों की जिंदगी में जीवंतता एवं सोच और विचार में ताजगी की कल्पना कहा से की जा सकती है।
जो जहां पड़ा उसे पड़ा रहने दो जैसा चल रहा है वैसा चलने दो वाले जुमलों को गुनगुनाते लोगों को क्या पड़ी है कि जरा भी विचारे कि अब कुछ नया अपनाने का समय आ गया है। पेंशनरों सी जिंदगी जीते लोगों ने तो शाम पड़े बकरियों को खूंटे से बांधने और मुर्गे-मुर्गियों को पिंजरे में धकलने के बाद गली में कब्जाई जमीन पर चारपाई डालकर सुस्ताने को ही जिंदगी मान ली है। उन्हें तो पैर और पेट के दर्द से कराहते बैशाखीनन्दन का भरपेट खाने के लिए मालिक से चीखचीख कर गुहार लगाना भी हेरिटेज सोंग सा लगता है। डीजे पर दस हजार वाट के स्पीकरों से निकलता साउण्ड भी उन्हें मधुर शास्त्रीय संगीत सा सुनाई पड़ता है।
पति के न रहते तीन बच्चों का पेट पालना, पापी पेट की आग बुझाने के लिए बदन भेदती बदनीयत नजरों का सामना करना, खुदगर्ज समाज की जहर घुली बातों से बच्चों को दूर रख पाना, मतलबी रिश्तेदार के नित मिलते तानों को सह पाना शायद उसे मौत से ज्यादा मुश्किल लगा हो। रोटी के ईंधन और सोने के लिए बंद आंगन का तो उसने जुगाड़ कर लिया था। किसी के आगे झोली नहीं फैलाने का स्वाभिमान भी उसमें था। नहीं तो वह अपने दस साल के बच्चे से मजूरी नहीं कराती खुद पापड़ और मंगोड़ी नहीं बनाती। जिंदगी के चकले पर पेट की आग में सिक कर पापड़ की सी पपड़ाती उसकी भावनाओं और संवेदनाओं का रुदन काश समाज के किसी झण्डावरदारों ने सुन लिया होता।

फिर घुटन नहीं देगी दुर्गन्ध

सन्तोष गुप्ता
चूरू। चूरू के वातावरण में अब घुटन होने लगी है। इसका साफ दिखाई देता कारण शहर के प्राय चहुंओर बढ़ती जा रही गंदे पानी की गैनाणियां हैं। उनसे उठती दुर्गन्ध ने हवाओं को भी बदबूदार कर दिया है। गैनाणियों के आस-पास से गुजरना तो अपना जी खराब करना है। मुंह पर रुमाल रखे बिना तो कोई निकल ही नहीं पाता। गैनाणियों के इर्द-गिर्द बसे लोगों का तो जीना ही मुहाल हो चला है।
दुर्गन्ध युक्त श्वांस लेना तो उनकी नियति बन गई है। गंदे पानी की गैनाणियों में पलते-पनपते मच्छर-मक्खियों ने भी उन्हें परेशान कर रखा है।घरों के खिड़की दरवाजे तक बंद रखने पड़ते हैं। ऐसे में वह ताजा हवा और धूप से भी वंचित हो गए हैं। कुछ परिवारों ने तो हिम्मत जुटाकर अपने घर बदल लिए हैं किन्तु हर कोई ऐसी हिम्मत नहीं कर पा रहा।
शहर के जनप्रतिनिधियों से लेकर जिला प्रशासन के आला अधिकारी तक सब इस समस्या से वाकिफ हैं किन्तु करता कोई कुछ नहीं। ऐसा नहीं कि गंदे पानी का उपयोग नहीं हो सकता। योजनाएं हैं पर उस दिशा में कभी विचार नहीं किया गया। इस मोहल्ले का पानी उस मोहल्ले में लेजाकर छोडऩे तक की जद्दोजहद में ही जनप्रतिनिधि उलझे रहे। ऐसे मेंं गंदे पानी में आवश्यक दवाई डलवाने अथवा समय-समय पर उसकी सफाई करवाने तक भी किसी का ध्यान नहीं गया। स्थिति तो यह है कि किसी ने गैनाणियों का आकार सीमित रखने का भी विचार नहीं किया।
नतीजा रहा कि छोटी गैनाणी भी अब विशाल तालाब का सा रूप लेने लगी हैं।अब तो गैनाणियां शहरवासियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालने लगी हैं बल्कि हेरिटेज सिटी कहे जाने वाले चूरू शहर के सौन्दर्य पर भी ग्रहण लगा रही हैं। नगर परिषद प्रशासन, शहर के जनप्रतिनिधि, जिला प्रशासन को इस संबन्ध में सामूहिक बैठकर विचार करना चाहिए। ऐसा नहीं कि इस समस्या का कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सकता।
चांद पर पानी की खोज की जा चुकी है तो क्या धरती पर गंदे पानी का इस्तेमाल किए जाने की कोई युक्ति सुझाई नहीं दे सकती। दे सकती है। मैं तो कहता हूं है भी। पर जरूरत है इस विषय में साझा सोच और ठोस प्रयास की। ऐसा हुआ तो चूरू में एक दिन इसी गंदे पानी से न सिर्फ बिजली बनाई जा सकती है अपितु पानी का ट्रीटमेंट कर उससे खेती और हरियाली पनपाई जा सकती है। फिर दुर्गन्ध घुटन नहीं देगी।

जानते सब हैं पर जागते नहीं

सन्तोष गुप्ता
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।

उपभोक्ता जानता सब है पर जागता नहीं

सन्तोष गुप्ता
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।

अच्छा होगा अच्छा मत करो

सन्तोष गुप्ता
चूरू। आपके लिए बहुत अच्छा होगा बस आप कुछ अच्छा मत करो। इस बात में बहुत सच्चाई है। जितनी सच्चाई है, उतनी गहराई भी। जीवन में बहुत से मौके आते हैं जब आप-हम कुछ अच्छा करना चाहते हंै। चाहते ही नहीं करते भी हैं। परिणाम सकारात्मक नहीं आता। अपेक्षा के अनुकूल नहीं होता। इससे मन में ग्लानि पैदा होती है। आगे कुछ अच्छा करने की तमन्ना मर जाती है। हताशा का भाव जागृत हो जाता है। इसे सूक्ष्मता से समझने की जरूरत है। जब भी ऐसा होता है तो इसके लिए आप दोषी नहीं हैं।
यह बात ठीक तरह से समझ लें। दरअसल जब हम अच्छा करना चाहते है तो इसके पीछे हमारा आध्यात्मिक दृष्टिकोण काम करता है। हमारी आत्मसंतुष्टि होती है। हमारी आत्मिक उत्कंठा होती है। इसमें उज्ज्वल भविष्य की अभिलाषा होती है। कहीं न कहीं किसी रूप में दूर-दृष्टि काम करती है। अच्छा करने के विचार से ही आप ऊर्जावान हो जाते हैं।समय के गर्भ में छिपे छल और षडयंत्रों के तोड़ की सोच हावी होती है। सहकर्मियों और सहपाठियों से श्रेष्ठता का भाव निहित होता। समकालीनों में अलग पहचान की इच्छा प्रभावी होती है। यह सब इसलिए होता है क्यों कि बचपन से लेकर अब तक हम यही तो पढ़ते-सुनते आए हंै। आप अच्छे तो जग अच्छा। अच्छा करोगे अच्छा -पाओगे। जैसा बोओगे-वैसा पाओगे। जितना बांटोगे-दुगना पाओगे। जितना त्यागोगे-चौगना आएगा। बगैरहा-बगैरहा।यह सब फलसफे अब कारगर नहीं रहे। बीते दिनों की बीती बातों की तरह सैद्धांतिक किताबों का हिस्सा बन गए। मौजूदा दौर सिद्धांतों पर नहीं व्यवहारिकता पर चलने का है। अब अच्छा करने, अच्छा दिखने, अच्छा होने, अच्छा बनने के मायने बदल गए हैं। अब अच्छाई को अच्छी आंखों से नहीं देखा जाता। सच्चाई को सच्ची तुला पर नहीं तौला जाता। ठीक उसी तरह जैसे खूबसूरती को खूबसूरत होने और दिखने की सशंकित नजरों से देखा जाता है।धार्मिक को पाखण्डी माना जाता है।
पुरुषार्थी को बेवकूफ कहा जाता है। विनम्र को चाटुकार, सहनशील और धैर्य वान को कमजोर समझा जाता है।नए जमाने के नए जुमले हैं खुद कुछ मत करो-किसी ने अच्छा कर दिया तो उसे अपना बता दो। ऐसा कर सको तो अच्छा नहीं तो अच्छा होने को ही झुठला दो। दूसरा यह कि जो हो रहा है होने दो न रोको न टोको न सहमति दर्शाओ न असहमति जताओ। कोई श्रेय देे तो ले लो उलाहना मिले तो पलटी खा जाओ।
तीसरा जैसा होगा-हो जाएगा। जितना होगा-उतना सही। न सक्रियता दर्शाओ न निष्क्रिय बने रहो। तटस्थभाव रखो। इसके पीछे एक सूत्र है। यह सूत्र बड़ा ही सूक्ष्म है। काम करो या ना करो, काम की फिक्र करो और फिक्र का जिक्र करो। दुनिया समझेगी आप काम को लेकर काफी चिंतित है। निष्ठावान हैं और समर्पित हैं। बस संयोग ही है कि काम हो नहीं रहा। सच मानिए इसमें आपके साथ गलत कुछ नहीं होगा। क्यों कि जब कुछ किया ही नहीं, कुछ हुआ ही नहीं, कुछ होना भी नहीं है तो फिर होगा भी क्या। आपके साथ अच्छा या बुरा तो तब होगा जब कुछ हुआ होगा। आपने कुछ किया होगा। इसलिए अच्छा होगा अच्छा मत करो।