सन्तोष गुप्ता
चूरू। आपके लिए बहुत अच्छा होगा बस आप कुछ अच्छा मत करो। इस बात में बहुत सच्चाई है। जितनी सच्चाई है, उतनी गहराई भी। जीवन में बहुत से मौके आते हैं जब आप-हम कुछ अच्छा करना चाहते हंै। चाहते ही नहीं करते भी हैं। परिणाम सकारात्मक नहीं आता। अपेक्षा के अनुकूल नहीं होता। इससे मन में ग्लानि पैदा होती है। आगे कुछ अच्छा करने की तमन्ना मर जाती है। हताशा का भाव जागृत हो जाता है। इसे सूक्ष्मता से समझने की जरूरत है। जब भी ऐसा होता है तो इसके लिए आप दोषी नहीं हैं।
यह बात ठीक तरह से समझ लें। दरअसल जब हम अच्छा करना चाहते है तो इसके पीछे हमारा आध्यात्मिक दृष्टिकोण काम करता है। हमारी आत्मसंतुष्टि होती है। हमारी आत्मिक उत्कंठा होती है। इसमें उज्ज्वल भविष्य की अभिलाषा होती है। कहीं न कहीं किसी रूप में दूर-दृष्टि काम करती है। अच्छा करने के विचार से ही आप ऊर्जावान हो जाते हैं।समय के गर्भ में छिपे छल और षडयंत्रों के तोड़ की सोच हावी होती है। सहकर्मियों और सहपाठियों से श्रेष्ठता का भाव निहित होता। समकालीनों में अलग पहचान की इच्छा प्रभावी होती है। यह सब इसलिए होता है क्यों कि बचपन से लेकर अब तक हम यही तो पढ़ते-सुनते आए हंै। आप अच्छे तो जग अच्छा। अच्छा करोगे अच्छा -पाओगे। जैसा बोओगे-वैसा पाओगे। जितना बांटोगे-दुगना पाओगे। जितना त्यागोगे-चौगना आएगा। बगैरहा-बगैरहा।यह सब फलसफे अब कारगर नहीं रहे। बीते दिनों की बीती बातों की तरह सैद्धांतिक किताबों का हिस्सा बन गए। मौजूदा दौर सिद्धांतों पर नहीं व्यवहारिकता पर चलने का है। अब अच्छा करने, अच्छा दिखने, अच्छा होने, अच्छा बनने के मायने बदल गए हैं। अब अच्छाई को अच्छी आंखों से नहीं देखा जाता। सच्चाई को सच्ची तुला पर नहीं तौला जाता। ठीक उसी तरह जैसे खूबसूरती को खूबसूरत होने और दिखने की सशंकित नजरों से देखा जाता है।धार्मिक को पाखण्डी माना जाता है।
पुरुषार्थी को बेवकूफ कहा जाता है। विनम्र को चाटुकार, सहनशील और धैर्य वान को कमजोर समझा जाता है।नए जमाने के नए जुमले हैं खुद कुछ मत करो-किसी ने अच्छा कर दिया तो उसे अपना बता दो। ऐसा कर सको तो अच्छा नहीं तो अच्छा होने को ही झुठला दो। दूसरा यह कि जो हो रहा है होने दो न रोको न टोको न सहमति दर्शाओ न असहमति जताओ। कोई श्रेय देे तो ले लो उलाहना मिले तो पलटी खा जाओ।
तीसरा जैसा होगा-हो जाएगा। जितना होगा-उतना सही। न सक्रियता दर्शाओ न निष्क्रिय बने रहो। तटस्थभाव रखो। इसके पीछे एक सूत्र है। यह सूत्र बड़ा ही सूक्ष्म है। काम करो या ना करो, काम की फिक्र करो और फिक्र का जिक्र करो। दुनिया समझेगी आप काम को लेकर काफी चिंतित है। निष्ठावान हैं और समर्पित हैं। बस संयोग ही है कि काम हो नहीं रहा। सच मानिए इसमें आपके साथ गलत कुछ नहीं होगा। क्यों कि जब कुछ किया ही नहीं, कुछ हुआ ही नहीं, कुछ होना भी नहीं है तो फिर होगा भी क्या। आपके साथ अच्छा या बुरा तो तब होगा जब कुछ हुआ होगा। आपने कुछ किया होगा। इसलिए अच्छा होगा अच्छा मत करो।
समकालीन संदर्भों के हवाले से सटीक टिप्पणी------
ReplyDeleteपरंतु, जमाने की हवाओं के विपरीत जो लोग चले, हम उन्हीं को जानते हैं। श्रेय लेने की हौड़ और मौन रहने का जोड़ क्षणिक होता है। एक न एक दिन यह तिलिस्म टूट जाता है और शेष रहता है पछतावा। इसीलिए हमें मन को उज्ज्वल रखते हुए सकारात्मक कदम बढाने ही होंगे तभी, हम होंगे कामयाब एक दिन------
सादर।