सन्तोष गुप्ता
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।
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