दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Friday, October 8, 2010

सुख चाहो तो हो जाओ तैयार

सन्तोष गुप्ता
शहरी विकास के पट खुल गए हैं। अगले दो-ढाई साल में चूरू का रंग-रूप और स्वरूप अदला-बदला सा होगा। वह दिन कैसा होगा? जब चूरू में गंदे पानी की एक भी गैनाणी नहीं होगी। पेयजलापूर्ति निर्बाध और पर्याप्त हो सकेगी। नालियों से पानी का सहज निकास होगा। घरेलू कचरे का उचित प्रबंधन होगा। यातायात सुधरेगा। शहर का फैलाव होगा। नई कॉलोनियां विकसित होंगी। लोगों को शुद्ध और स्वच्छ हवा मिलेगी। शहर साफ और सुन्दर दिखेगा।
चूरू में ऐसा होगा यह जानकार अभी से ही सुखद अहसास होने लगा है। आरयूआईडीपी के माध्यम से शहरी विकास पर करीब 8 8 करोड़ रुपया खर्च होने को है। यह राशि शहर की दशा और दिशा बदल देगी। शहरी ढांचागत विकास के शुरू होने के साथ शहर के सहस्त्रों हाथों को काम मिलेगा। निर्माण कार्य से जुड़े लोगों को व्यवसाय मिलेगा। हर एक की नेक नीयत और नैतिकता यदि शहर के विकास में निहित होगी तो निश्चित ही पीढिय़ों तक दुआएं पाने वाला काम हो जाएगा।
पर यह भी सत्य है कि हर सुख की इमारत दुख के भोग की नींव पर ही खड़ी होती है। चूरू के विकास और नव निर्माण के इस काम में जहां शहरवासियों की जागरुकता जरूरी है वहीं उनका सहयोग भी अपेक्षित है। कोई भी निर्माण सुकून बाद में देता है पहले व्यवधान और बाधाएं सहता है। इस काम में भी बाधाएं आएंगी और व्यवधान भी होंगे। शहर की सड़कें और गलियां खुदेंगी। नालियां मिट्टी से भरेंगी। गंदा पानी सड़कों पर बहेगा। यातायात बाधित होगा। घरों से बाजार तक और बाजार से घर तक आवागमन महीनों तक प्रभावित रहेगा। ग्राहकी में मंदी आएगी। रात की नींद और दिन का सुकून खो जाएगा। इतनी तोडफ़ोड़ होगी। लेकिन शहरवासियों को सब कुछ खुशी से सहना पड़ेगा। इतना ही नहीं यथा योग्य सहयोग भी देना होगा।
यहां चिंता और चिंतन का विषय यह है कि सरकारी प्रक्रिया और लालफीताशाही में सब कुछ उलट-पुलट हो गया।

आरयूआईडीपी पहले पेयजल वितरण प्रबन्धन का कार्य शुरू करने जा रही है। सीवरेज का काम आरम्भ करती तो च्यादा बेहतर होता। उसके पीछे-पीछे ही नई पेयजल लाइन डालने का काम भी शुरू हो जाता। जिससे सड़कों का फिर से निर्माण हो जाता। लोगों को ज्यादा दिन तक आवागमन में परेशानी नहीं भोगनी पड़ती। इसके पीछे तर्कसंगत कारण यह है कि सीवरेज के पाइप, पानी के पाइप से अधिक व्यास के होने व अधिक गहराई में डाले जाने हैं। यदि एक बार सड़क खोद कर पानी की लाइन डाल दी जाएगी तो सीवरेज कार्य में काफी बाधा आएगी। जबकि सीवरेज लाइन को जगह-जगह गली मोहल्लों में होते हुए सीघे घरों से भी जोड़ा जाएगा। शहर की सड़कें और गलियां इतनी चौड़ी भी नहीं हैं कि सीवरेज के लिए खोदी जाने वाली सड़क और पेयजल के लिए खोदे जाने वाले गड्ढ़ों के बीच की दूरी एक-दूसरे काम को प्रभावित न करे।
अब भी प्रशासन और शासन के पास समय है कि वह इस विषय पर यथा शीघ्र विचार करे। सीवरेज कार्य को जितना जल्दी हो सके प्रारम्भ किया जाए। हो सके तो जब तक पेयजल के लिए उच्च जलाशयों का निर्माण हो या पम्पिंग स्टेशन बने तब तक सीवरेज का काम युद्ध स्तर पर शुरू हो जाए।कहीं ऐसा न हो कि पेयजल लाइन डालने का कार्य पूर्ण होने पर सीवरेज का कार्य प्रारम्भ हो। इससे समय, श्रम और धन सब कुछ मिट्टी में चला जाएगा। राच्य के अनेक शहरों में जहां सीवरेज और पेयजल योजनाओं के क्रियान्वयन में समन्वय और तालमेल का अभाव रहा है वहां की जनता आज तक परेशानी भोग रही है और करोड़ों की राशि मिट्टी में मिल गई है। प्रशासन को चाहिए कि वह यह भी सुनिश्चित करे कि सीवरेज और पाइप लाइन डालने के बाद शहर की सड़कें फिर से वैसी ही गुणवत्ता पूर्ण बन जाएं जैसी हाल में हैं। शहर की सड़कों को बने च्यादा दिन नहीं हुुए हैं। वर्षों की तकलीफ भोगने के बाद लोगों को राहत मिली है। शहरवासियों को राहत और शहर का सुकून बना रहे सभी ऐसी उम्मीद करें।
santosh.gupta@epatrika.com

Wednesday, September 22, 2010

कौन जाने हाल-ए-दशा

-सन्तोष गुप्तासावन से लेकर भादो तक बरसात का लगातार बना रहना अब आम जिंदगी को प्रभावित करने लगा है। जहां देखो वहीं जीवन की रफ्तार धीमी पड़ गई है। रोजमर्रा के कामकाज तक प्रभावित होने लगे हैं। हर आम और खास किसी न किसी को लेकर जान-माल की सुरक्षा की चिंता से ग्रसित है। काश्तकार को धान की तो व्यापारी को माल की सुरक्षा का ख्याल सता रहा है। नौकरी पेशा घर से दफ्तर तक सुरक्षित आवागमन के लिए मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करता नजर आता है। स्कूल और कॉलेज पैदल आने-जाने वाले बच्चों और बच्चियों की तो जैसे हर क्षण जान सांसत में ही बनी रहती है। जाने कब कौन किस घड़ी किस रूप में यमराज बन उन्हें लेने आ जाए? मंदिर-मस्जिद जाने वाले बुजुर्ग स्त्री और पुरुष तो अब घर की देहरी से बाहर कदम बढ़ाते ही राम और रहीम का जाप करने लगे हैं।जिले भर की सड़कों के हाल इतने बुरे और बदहाल है कि उनके लिए लिखने को ही शब्द सुझाई नहीं देते। गली-मोहल्ले से लेकर मुख्य बाजार और राष्ट्रीय राजमार्ग तक बद से बदतर खस्ता हालत में हैं। सड़कों पर लम्बे-चौड़े गड्ढ़े हर क्षण हादसे को दावत देते दिखाई देते हैं। पैदल चलने वाला हो या वाहन चालक सड़क से सुरक्षित गुजरना तो जैसे चुनौती हो गया है। इन्द्रदेव की मेहरबानी ने गड्ढ़े में पानी भर कर रही सही कसर पूरी कर दी है। जहां इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हुए हैं वहां की नगर परिषद की कथित अनदेखी या लापरवाही ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं। शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण कस्बाई हर जगह नाले और नालियां गंदगी के ढेर से अटी हुई हैं। नाले और नालियों में पानी के प्रवाह के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। उसमें इतना कूढ़ा-करकट भरा है कि मवेशी भी बिना फंसे और धसे उस पर से गुजर कर निकलने में फख्र महसूस करने लगे हैं। नाले और नालियों का पानी सड़कों पर दरिया की तरह बह रहा है। ऐसे में सड़कों पर गड्ढ़ों का पता ही नहीं चलता। कौनसा बढ़ता कदम जिंदगी का आखिरी कदम हो जाए? आए दिन सड़कों पर वाहनों के गड्ढ़े में गिरकर दुर्घटनाग्रस्त होने की सूचनाएं मिलती रहती हैं। लोग कहने लगे हैं कि सड़क पर गड्ढे हैं कि गड्ढ़े में सड़क? दुर्भाग्य तो यह है कि इस सब के लिए फिक्रमंद, चिंतक और आलोचक सब आम नागरिक ही है। उन लोगों को इन हालातों की कतई चिंता नहीं जो लोग इन समस्याओं के निस्तारण के लिए सक्षम और जवाबदेह हैं। जिला प्रशासन और नगरपरिषद व पालिकाओं में तो सड़कों की मरम्मत और नाले-नालियों की सफाई के लिए पहुंचने वाले ज्ञापनों को तो अब कचरे की टोकरी में भी नहीं डाला जाता बल्कि इनके बंडल बांधकर सीधे दफ्तरों में ही स्थित कुएं में पटक दिया जाता है। शहर और कस्बाई नागरिकों को पूरे आत्मविश्वास से भरोसा दिलाया जाता है कि समस्या का शीघ्र ही समाधान कर दिया जाएगा। जिले में चहुंओर हाल ही में स्थानीय निकाय चुनाव हुए हर किसी जनप्रतिनिधि ने अपने क्षेत्र की सड़क, सफाई और रोशनी की समस्याओं से निजात दिलाने का भरोसा दर्शाया था। आज कोई भी न सुनने वाला है न देखने वाला। जिला प्रशासन से तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है। बंद कमरों में बैठ कर बीस सूत्री, पंद्रह सूत्री बैठकों के आयोजन कर और आंकड़ों का पजलगेम खेल कर जनता जनार्दन को उल्लू बनाने के सिवाय कोई काम नहीं है। प्रशासन ने आपदा प्रबन्धन के लिए खास तौर पर इन्तजाम किए होते हैं। क्या बांध के टूटने पर ही वहां मिट्टी से भरी बोरियां डलवाई जाएंगी? खस्ताहाल सड़कों पर रखरखाव के कोई प्रबन्ध किया जाना जिला प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं है? क्या प्रशासन को उनलोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करनी चाहिए जिनकी निगरानी और जिम्मेदारी में सड़कों का निर्माण होता है और वह निश्चित मियाद या उम्र से पहले ही उधड़ जाती है? ठेकेदार को नोटिस देना उसका पैसा रोक लेना ही क्या कार्रवाई की श्रेणी में आता है? उन अभियंताओं पर गाज क्यों नहीं गिराई जाती जिन्होंने जनता से लेकर सरकार तक का भरोसा तोड़ा है? संवेदनशील सरकार और जवाबदेह प्रशासन का यही प्रमाण है तो ओर बात है नहीं तो अब समय आ गया है जब सरकार और प्रशासन दोनों जनता की हाल-ए-दशा की सुध लेवें।

हो गई अग्नि परीक्षा

- सन्तोष गुप्तासादुलपुर में रेलवे स्टेशन पर मंगलवार रात्रि जो हुआ वह अप्रत्याशित ही नहीं अकल्पनीय था। जातरू बालिका की चीख से उठी चिंगारी ने दावानल का रूप ले लिया और प्रशासन मुंह ताकता रह गया। बालिका के साथ जो हुआ वह किसी पिशाच का ही काम हो सकता था। इन्सान के चेहरे में आबादी के बीच घूमते पिशाचों को भला कौन पहचाने? तकलीफ तो तब पहुंचती है जब किसी से रक्षा और सुरक्षा की आस लगाई जाए और वह ही भस्मासुर बन जाए। बालिका से ज्यादती हर हाल में असहनीय और निंदनीय कही जा सकती है। दोषियों पर इसके लिए खुदा का कहर भी बरपे तो कम होगा। पर पीडि़त के भाई का रेलवे सुरक्षा बल के जवानों से मदद मांगना गैरवाजिब किसी भी सूरत में नहीं कहा जा सकता। भले यह सही है कि रेलवे सुरक्षा बल की जवाबदेही रेलवे की सम्पत्ति के सुरक्षा और संरक्षा में है। रेल से सफर करते यात्री या रेलवे स्टेशन परिसर में विश्राम करते मुसाफिर के साथ होने वाली किसी भी आपराधिक वारदात का उनसे कोई वास्ता नहीं। इसके लिए राजकीय रेलवे पुलिस जिम्मेदार है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि खाकी वर्दी पहनने वाला किसी संस्था अथवा संगठन का सवैतनिक मुलाजिम पहले है या एक संवेदनशील इन्सान? इन्सान होने के नाते क्या समाज और प्राणी के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं? पीडि़ता की चीख और उसके भाई की गुहार सुन कर यदि प्रदेश और देश के कोने-कोने से आए विभिन्न जाति, धर्म, समाज और प्रांत के जातरुओं में मानवीयता और इन्सानियत जाग गई तो उन खाकी वर्दी वालों की संवेदना कहा चली गई? दोषियों को पकडऩा अथवा उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करना यदि रेलवे सुरक्षा बल के जवानों के क्षेत्राधिकार में नहीं था तो न सही, पीडि़त की मदद में सहानुभूति के दो बोल और सहायता में राजकीय रेलवे पुलिस से समन्वय का काम तो किया ही जा सकता था। वारदात की अनदेेखी और पीडि़त की पिटाई ने जातरुओं के रगो में बहने वाले लहू को किस तापमान तक उबाल दिया इसका नतीजा सबके सामने है। बरसों की पीड़ा और दशकों की मांग के बाद सादुलपुर के वाशिन्दों को बड़ी लाइन की गाडिय़ां और नया रेलवे स्टेशन नसीब हो पाया था। पलक झपकते समूचा रेलवे स्टेशन धू-धू कर जल गया। अब इसके फिर से दुरुस्त होने में कितना वक्त लगेगा फिलहाल कहा नहीं जा सकता। लाखों लोगों की मिन्नतें और मुरादों के बाद जब कोई चीज मिलती है तो उसके खोने का गम आसानी से नहीं जाता। रात के काले साए में स्टेशन के चहुंओर से उठती आग की लपटे ददरेवा मेले में लोकदेवता गोगादेव को धोक लगाने आए आस्थावान और श्रद्धावान जातरुओं के अन्र्तमन में धधकती ज्वाला का प्रत्यक्ष प्रदर्शन था। अब यह इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।हर कोई जानता है विपदा घंटी बजा कर नहीं आती। जब आती है तो सम्भलने का अवसर भी नहीं देती। इसी लिए शासन-प्रशासन प्रजा की सुरक्षा और संरक्षा के तमाम इंतजाम ऐहतियातन करके रखता है। सादुलपुर रेलवे स्टेशन पर शासन और प्रशासन की ओर से ददरेवा लखी मेले के चलते ऐसे कोई इन्तजाम नहीं होना खेदजनक है। ट्रेनों में जातरुओं के ओवरलोड पहुंचने से हर कोई वाकिफ था। इसे देखते हुए शासन और प्रशासन को पहले से ही अतिरिक्त फोर्स का इन्तजाम करना था। यहां तक कि मेले आयोजन में किसी भी स्थिति से निपटने के लिए सीसी टीवी कैमरे और रेपिड एक्शन फोर्स, वीडियो ग्राफी तो साधारण तैयारियों में गिनी जाती है। विशेष तौर पर तब जब देश में नक्सली और आतंकी घटनाओं की हर क्षण आशंका बनी हुई है। आरपीएफ, जीआरपी यहां तक की सिविल पुलिस भी स्टेशन परिसर में मौजूद हजार-डेढ़ हजार जातरुओं के रोष को घंटों तक काबू करने में नाकाम ही रही यह आश्चर्य जनक रहा। जिला मुख्यालयों पर बैठे आलाधिकारियों के घरों पर घंटियां भी कब से घनघनाती रहीं पर वे हरकत में तब आए जब हालात पूरी तरह हाथ से निकल गए। रेलवे सुरक्षा बल के दफ्तर पर पथराव, प्रदर्शन और कब्जा कर हथियार लूट ले जाना, जीआरपी थानाधिकारी की जीप को आग लगा देना आजादी के आन्दोलन सरीका सा नजारा था। सुरक्षा और संरक्षा के प्रहरियों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार पर आमजन का आक्रोश यदा-कदा देखने और सुनने को मिलता रहा है। श्रद्धा और आस्था में डूबी जनता का खाकी वर्दी के प्रति सम्मान और समर्पण भाव इस तरह टूटने लगेगा तो तमाम सामाजिक व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी। घटना के बाद रेलवे स्टेशन को त्वरित खाली कराया जाकर पुलिस अपने कब्जे में ले लेती तो भी ऐसा नहीं होता जैसा दावानल बाद में धधका। शेखावाटी अंचल खाटू श्यामजी, सालासर बालाजी, राणीसती, गोगामेढ़ी मेलों के आयोजन के साथ लोक संस्कृति के संरक्षण का वाहक रहा है। लाखों लोग रात-रात भर पैदल चलकर सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को अक्षुण्य बनाए हुए हैं। आने वाले कल में भी खाकी वर्दीधारियों ने जनता और लोकसेवा के प्रति अपने व्यवहार का आत्मावलोकन कर उसमें सुधार नहीं किया तो अंजाम क्या होगा कहा नहीं जा सकता। यदि इस घटना को प्रशासन की अग्निपरीक्षा कहा जाए तो वह तो इसमें फेल ही साबित हुआ।

Monday, June 21, 2010

पापा बहुत याद आते हो....


सन्तोष गुप्ता
मैं जब भी आपके पोते कुक्कू को समझाता हूं पापा आप बहुत याद आते हो। मुझे ठीक से याद नहीं क्या मुझे लेकर आप भी ऐसे ही तनावग्रस्त रहा करते थे? जैसे आज मैं रहता हूं? उसके प्रति चिंता मेरी कभी खत्म होगी कि नहीं मैं नहीं जानता। बस इतना जानता हूं कि आज वह अठारह बरस का होने को है उसके भविष्य को लेकर मैं अब तक आश्वस्त नहीं हो सका हूं। बड़ा होकर वह क्या बनेगा? आगे चलकर वह क्या करेगा? जानता हूं भाग्य उसका है पर परवरिश तो मेरी है ना पापा? मैं उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं रख रहा फिर भी चिन्तामुक्त नहीं हो पाता। ऐसा क्यों है पापा?
पापा शायद आपको याद हो आपके रहते मैं भी दो बच्चों का पिता बन गया था। पिता बनने की खुशी कैसी होती है मैंने उस दिन जान लिया था। आप भी तो दादा होने पर मुझ से कही अधिक पुलकित थे। आपके दुलार- प्यार में ही कुक्कू घुटने चलता हुआ घर की सीढिय़ां चढऩे लगा था। आप उस पर नजर रखा करते थे। उसके लडख़ड़ाने या फिसलने से पहले ही आपका मजबूत हाथ उसे थामने को तैयार रहता था। घर के ऊपर माले पर उसके ताऊ थे और नीचे आप? पापा आपकी मौजूदगी मैं मुझे उसकी सुरक्षा की तनिक भी चिन्ता नहीं थी। आपका साया मुझे धूप में भी छांव का अहसास कराता था। कठिन वक्त में भी मुझे सहज बना देता था। मैं तो उन दिनों खुद स्वावलम्बन की डगर पर था। नव विवाहित जीवन की कई उतार-चढ़ाव वाली राह पर आप ही मेरा सम्बल बन जाया करते थे। हाथों में छोटी सी पगार पाकर मैं तो बैचेन हो जाता था। उस पगार में से एक चौथाई हिस्सा आपको घर खर्च का जो देना होता था। कई बार में संकोच कर बैठता था। आप भी मुझ से नाराज हो जाते थे पर मुंह से कहते कुछ नहीं। मैं ही आपके चेहरे से आपके मन के भाव पढ़ लिया करता था। मेरे ऐसे व्यवहार से आपको कितनी तकलीफ होती होगी ना पापा?
आज मैं ही नहीं तुम्हारी बहू भी कमाती है। मैं पूरी पगार मकान के कर्ज में चुका देता हूं। वो अपनी पगार से घर का खर्च उठाती है। अब तो आपका पोता ही नहीं पोती तनू भी चौदह बरस की हो गई है। चार की थी वो जब आप उसकी नन्हीं हथेली से धीरे से अपनी अंगुली छुड़ाकर उससे बहुत दूर आसमान का तारा बन बैठे थे। आपने तो उसका न हंसना सुना न नाचना देखा। अब तो वो नन्हें हाथों से मुलायम और पतली चपाती भी बनाने लगी है। दादी के हाथों अपने बालों में कंघी करवाते वो आपको याद कर लिया करती है। मेरे बच्चों की दादी ठीक से है पापा। पर वो मेरे बच्चों के पास नहीं रहती। उसका मन भी वहां लगता है जहां आपका पलंग लगा करता था। आपके सबसे छोटे को लेकर उसकी चिंता अभी मिटी नहीं जिसका घर बसाने की चिंता में आप मिट गए पापा। छोटे का ख्याल मुझे भी व्यथित करता है। पर मैं भी क्या करूं उसकी अधूरी शिक्षा और तंगहाली उसमें पनपने नहीं देती खुशहाली। आपकी दी छत के नीचे अभी वो महफूज है। आपको शायद याद न हो आपने जिस जमीन पर मेरे मकान की नींव रखी थी उसी छत के नीचे अब मेरा भी सुकून है पापा। पर अब न आप मेरे पास हो और न मैं मेरे परिवार के साथ? भाग्य का ये कैसा खेल है पापा?
पापा आपका ख्याल आते ही मेरा शरीर ऊर्जावान हो जाता है। अन्र्तमन गर्व और फख्र्र से खिल उठता है। आपके स्नेहिल स्पर्श का एहसास रोम-रोम में नवीन उष्मा का संचार कर देता है। ऐसा लगता है मानों आसमान की ऊंचाई और सागर की गहराई नापने की ताकत मुझमें आ गई। आज आप साक्षात मेरे पास नहीं तो क्या मेरे अन्तर्मन में तो बसे हो। एक संतान के लिए पिता का होना शब्दों में तो बांधा नहीं जा सकता। सिर्फ आत्मा की गहराई से महसूस किया जा सकता है। पिता ही तो होता है जिसका रिश्ता संतान की आत्मा और शरीर से होता है। पापा आप ही हो जिसने मुझे नाम दिया। समाज में पहचान दी। आप से ही मुझमें साहस और संस्कार पनपे हैं। आपने ही मुझे बुरे वक्त और बुरी नजर से बचाया है। रोटी के हर निवाले के साथ मेरी खुशहाली की दुआएं की हैं ईश्वर से मेरी कामयाबी की ऊंचाईयां मांगी हैं। आपने ही पढ़ाया है मुझे भलाई का पाठ। अच्छाई और बुराई में फर्क बतलाया है। आप से ही हुआ था मुझे सही और गलत का ज्ञान। भले और बुरे की पहचान। मैं आपको मिस कर रहा हूं पापा?
घर और परिवार से दूर आज जब मैं अकेला हूं मुझे आपकी जरूरत महसूस होती है पापा। सोचता हूं आप होते इन हालातों में मेरा सम्बल होते। मुझे याद है आपकी खु्रली सोच और दूरदृष्टि ही थी जब आपकी बहू की नौकरी लगी और आपने उसको अपने आशीर्वाद और सीख के साथ खुशी-खुशी विदा किया। वो जब अपने स्कूटर पर ऑफिस जाने लगी तो आपने उससे आपका पर्दा करना भी छुड़वा दिया। आप ही थे जो मुझसे कहा करते थे कि बेटा कोई नौकरी के लिए मेहनत कर लो या ये पत्रकारिता ही करोगे? काश मैंने तब आपका कहा सुना होता पापा? मेरा मन पत्रकारिता में ही लगा था। भले ही आज मैंने अपने लक्ष्य को पा लिया पर मन का संतोष अब भी न पा सका पापा। आज आपको याद कर आपके हृदय की विशालता को नमन करता हूं पापा।
मैंने तो आपको कभी जवान देखा ही नहीं पापा? मैं आपकी नौ संतानों में आठवां जो था। मेरा एक भाई रहा नहीं सो मैं सातवां हुआ। आपकी जो छवि मेरी आंखों में बसी है वह एक कर्मठ, संयमी, धैर्यवान, स्वाभिमानी, धीर-गंभीर और जीवन से संघर्षशील किसी उम्रदराज पुुरुषार्थी इंसान की सी है। आपका घर के काम-काज में व्यस्त एकाकी स्वभाव ही मेरे मानस पटल पर बरबस उभर आता है। सुबह दूध लाने से लेकर रात सोने के लिए हम सबके बिस्तर लगाकर घर के दरवाजे पर ताला जड़ आंगन की बत्ती बुझाने तक आपकी सक्रियता मेरी आंखों में आज भी किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म की तरह चलती है। सुबह जल्दी उठना और पैदल ही दफ्तर के लिए निकल जाना भी मुझे याद है। शाम को ट्यूशन पढ़ाते हुए घर लौटना और लौटते में हम बच्चों के लिए फल लाना नहीं भूलना भी मेरे जेहन में है। रात हमारी पढ़ाई के बारे में जानना और हमें पढऩे के लिए प्रेरित करना भी मैं नहीं भूला हूं। क्या मैंने पढ़ाई के लिए आपको कभी सताया था पापा?
आज जब मैं आपके पोते को समझाता हूं उसे उसका अच्छा कॅरियर बनाने के लिए प्रेरित करता हूं, उसे अपने शरीर की स्वस्थता के लिए समझाता हूं, उसे कम्प्यूटर के सदुपयोग के लिए कहता हूं, टीवी पर समय जाया करने से टोकता हूं, सम्भलकर और सुरक्षित वाहन चलाने के लिए बोलता हूं, पढ़ाई करते हुए लिख-लिख कर अभ्यास करने की सलाह देता हूं तो आप बहुत याद आते हो पापा। तब न अपना घर था, खेल के संसाधन, टीवी था न ही घर में कोई दुपहिया या चौपहिया वाहन, दो कमरे और दस हम परिवारजन। काम-काज के साथ तमाम साधन-संसाधनों के अभाव में परिवार के साथ इतना संतुलन कैसे बैठा लेते थे पापा? पापा आपको शत्-शत् नमन।

Sunday, April 18, 2010

अपनों ने ही बना दी पराई

किस्से और कहानियां बनी पेयजल उपलब्धता,
आगामी सरकारी योजनाएं खटाई में पडऩे के आसार
सन्तोष गुप्ता/विश्वनाथ सैनी
चूरू, 18 अप्रेल। लोगों ने घरों में घड़े भरकर रखना बंद कर दिया था। गृहिणियां रात सुकून से सोने लगी थी। अल सुबह उठने और मीलों पैदल चलने व सिर पर घड़े रख पानी लाने की चिंता उन्हें सताती नहीं थी। मेहमान के आने पर बच्चे दौड़कर सीधे टूटी से गिलास में ही ताजा पानी भर ले आते थे। रात को दो बजे भी पानी की जरूरत होती तो टूटी खोलते ही पानी उपलब्ध हो जाता था। मवेशियों की खेळियां और परिंदों के परिण्डे तक दिन भर भरे रहते थे। गांव के लोग पानी का मूल्य समझने लगे थे। नल से
पानी व्यर्थ बहते कोई देख लेता था तो तुरन्त टोक देता था या खुद टूटी बंद कर देता था। चौबीस घंटे पीने के लिए शीतल, शुद्ध और स्वच्छ पानी की उपलब्धता बनी रहती थी। ये बाते भले ही अब किस्से और कहानी सी लगती हों लेकिन यह सच्चाई है जो अब चूरू, झुंझुनूं और हनुमानगढ़ वासियों की जुबान से किस्से और कहानी बनकर निकल रही है। समय का चक्का तो अपनी गति से चलता रहा। गांव के लोग उसकी चाल के साथ कदमताल नहीं कर सके। वह तो न चाल समझ सके न चरित्र जान सके। पीने के पानी के अभाव में जीते हुए उसे एकाएक जो सुकून मिला वह उसे भी संजोए नहीं रख सके। खुशी मिले उन्हें बमुश्किल एक दशक भी नहीं बीता अपनों के बीच ही अपनों के ही हाथों आपणी योजना पराई होती दिखी।
राजस्थान पत्रिका की टीम ने दम तोडऩे के कगार पर पहुंची आपणी योजना का हाल जाना तो हैरानी हुई। सिर्फ सात साल पुरानी योजना को समय के साथ सम्बल और समृद्धता मिलने के बजाय जिसने जब चाहा जहां मौका मिला पराई नार की तरह बुरीनजर डालने से बाज नहीं आया। अब ढाणी और गुवाड़ में लगी टूटी दिनभर खुली रहती है पर उसमें पानी की बूंद नहीं टपकती। पाइप से गांव तक पीने का पानी महीनेभर में आए कि पन्द्रह दिन में कुछ निश्चित नहीं रहा। महिलाओं की दिनचर्या प्रभावित हो गई। चौका-चूल्हे से पहले पीने के पानी की जुगाड़ में उनकी रातों की नींद उड़ गई और दिन का चेन जाता रहा। पानी का इन्तजार करना तो अब ग्रामीणों के बस में रहा ही नहीं सो हर कोई पानी के जुगाड़ में फिर सेे जुटा दिखा। पत्रिका टीम ने पाया कि इन्दिरा गांधी नहर से पानी छोड़े जानेसे लेकर गांवों में पानी पहुंचने के बीच की तमाम व्यवस्थाएं पानी संग्रहण, भण्डारण, शुद्धिकरण और वितरण नियत मानदण्डों पर कहीं खरी नहीं उतर रही। न तो पानी का संग्रहण अपेक्षित है न भण्डारण सुरक्षित और संरक्षित है। शुद्धिकरण और स्वच्छता तो भगवान भरोसे है। वितरण व्यवस्था उन्हीं लोगों ने चौपट कर रखी है जिन्हें उसकी चौकीदारी का जिम्मा सौंपा था। चूरू, झुंझुनूं और हनुमानगढ़ के सैकड़ों ग्रामीण और कुछ शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए बनी जनसहभागिता के मूल आधार वाली पीने के पानी की इस योजना का इस तरह गला ही सूख जाएगा ऐसा तो योजना बनाने वाले ने भी कल्पना नहीं की होगी। हालात यह हैं कि आपणी योजना का वर्तमान ही नहीं उससे जुड़ी भविष्य की उज्जवल संभावनाएं भी पूरी क्षीण होती दिखाई देने लगी हैं।
राज्य सरकार तो चूरू की आपणी योजना को दिखा विश्व बैंक से इसे राज्य के अन्य जिलों में लागू करने का सुखद सपना देख रही है। जबकि स्थिति यह है कि योजना निकट भविष्य में चूरू में ही ठीक से संचालित हो सके इसमें संशय है। खुद जलदाय विभाग के अधिकारियों का दावा है कि कि जिन क्षेत्रों में योजना के जरिए पाइप लाइन से जलापूर्ति की जा रही है वहां इतने अवैध कनेक्शन है कि योजना का उस उपभोक्ता को लाभ दे पाना ही मुश्किल हो गया है जो कि सद्इच्छा से लाभ चाहता है।
मोटे अनुमान के अनुसार योजना से जुड़े गांवों में करीब तीस से चालीस हजार अवैध कनेक्शन हैं। यह सब कैसे हुए? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यदि इन सबकी जांच और झंझटों में उलझा न भी जाए तो कम से कम अब इस पर तो ठोस कदम उठाने की जरूरत है ही कि अवैध कनेक्शनों को काटा कैसे जाए? फिर यह कि योजना से जुड़े अंतिम छोर के व्यक्ति और गांव तक पानी पाइप के जरिए कैसे पहुंचाया जाए? यह सच्चाई है कि योजना की पाइप लाइन में नियमित पानी प्रवाह नहीं बने रहने से उसके जोड़ों में लगी रिंगों को दीमक चट कर जाती है। इससे स्थिति यह हो गई है एक किलो मीटर के रास्ते में बीसियों जगह रिसाव हो गए।
अब भला पानी भेजने वाले और पानी पाने वाले सबकी नीयत साफ भी हो तो आखिर तक पानी पहुंचने की स्थिति ही नहीं बनती। पम्प हाउस से निकलने वाला पानी गांव की टंकी तक पूरा पहुंचता ही नहीं तो गुवाड़ी में लगी टूटी से पानी टपकेगा कैसे? योजना को संचालित करने वाले जलदाय महकमें के कारिंदें ग्रामीणों को कहते हैं कि वे पूरा पानी भेज रहे हैं गांव में जिन लोगों ने अवैध कनेक्शन किए हैं उन्हें काट दे तो पाइप में पानी आ जाएगा। ग्रामीण कहते है कि अवैध कनेक्शन काट दिए फिर भी पानी नहीं पहुंचा क्यों कि लाइन में पूरा पानी छोड़ा ही नहीं जाता। उनका आरोप है कि विभाग के लोग पानी माफिया से मिलकर पानी बेच रहे हैं। पानी पंचायतों और विभागीय अधिकारियों के बीच चलती इस नूरा कुश्ती ने स्थिति यह कर दी कि पम्प हाउस के नजदीक के गांवों में भी पाइप लाइन के जरिए एक माह में भी जलापूर्ति नहीं की जा रही। टैंकरों से जलापूर्ति में सबकी चांदी बन रही है और पाइप लाइन दीमक चट कर रही है। पत्रिका टीम ने देखा कि मौजूदा हालात में पानी नहीं पीकर भी ग्रामीण सुरक्षित रह सकता है पानी पीकर तो उसे जलजनित बीमारी घेर ले तो कोई बड़ी बात नहीं। आपणी योजना का पानी जिस स्त्रोत से और जिस वितरिका के माध्यम से जिन जगहों पर होता हुआ जिस हालत में पहुंच रहा है, वह शब्दों में बयां करना मुश्किल है। फिर उसे जिस तरह से स्वच्छ और शुद्ध किया जा रहा है यह इस बात से समझा जा सकता है कि पानी के ऑटोमेटिक ट्रीटमेंट प्लांट वर्षों से बंद पड़े हैं।
अनुभवी तकनीकी रसायन विशेषज्ञ प्लांट पर नियुक्त ही नहीं है। अनुमान के आधार पर हैल्परों से पानी की शुद्धता व स्वच्छता व्यवस्था बनाई रखी जा रही है। इन सब हालातों में जलदाय विभाग के आला से अदने अभियंता चाहे जो दावे व वादे करते हो इसमें कोई दोराय नहीं कि मौजूदा हाल और हालात अपेक्षानुकूल नहीं रहे। फिर भी अभी बहुत समय है। पानी की कीमत को जाना जाए और उसके उपयोग के प्रति जागा जाए। रिस-रिसकर व्यर्थ बहते पानी और ईंट-ईंटकर ढहते साधन-संसाधन को बचाया जाए। इस बार सिर्फ एक तरफा नहीं बल्कि चौतरफा समझ, संकल्प और समर्पण की जरूरत होगी।

फैक्ट फाइल
1994- शुरुआत
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2003- गांव-गांव पहुंचा पानी
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2 हजार किमी में- उच्चगुणवत्ता की पाइप लाइन
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20 हजार वर्ग किमी- क्षेत्रफल में फैली
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24 घंटे- जलापूर्ति का दावा
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485 गांव व 05 कस्बे- वर्तमान में जुड़े हैं
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20 गांव-सरदारशहर के जुड़े ही नहीं
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70 गांव- योजना से कटने को हैं तैयार
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09 लाख- लोग लाभान्वित
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04 स्थानों पर-जल शुद्धिकरण सयंत्र
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02 स्थानों पर- बड़े जल भंडारण गृह


योजना की मूल भावना
भ-जल की गुणवत्ता संबंधी समस्याओं से जूझ रहे चूरू, झुंझुनंू व हनुमानगढ़ जिले के लगभग बीस हजार वर्ग किलोमीटर में पीने के लिए नहर का शुद्ध व स्वच्छ पानी मुहैया करवाने की दृष्टि से वर्ष 1994 में आपणी योजना बनाई गई। मरु क्षेत्र में भागीरथी साबित हुई आपणी योजना में करोड़ों रुपए का वित्तभार संयुक्त रूप से जर्मन सरकार व राजस्थान सरकार ने वहन किया। योजना के प्रथम चरण में 370 गांव व दो शहरों के लगभग नौ लाख लोग लाभान्वित होने थे।
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निशचित रूप से आपणी योजना में ढेरों विकृतियां पैदा हो गई हैं। वर्षों पुरानी इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। योजना की स्थिति दयनीय होने लिए ग्रामीण भी बराबर के जिम्मेदार हैं। प्रत्येक गांव में औसत ढाई सौ अवैध कनेक्शन हैं। सबसे अधिक समस्या राजगढ़ के गांवों में है। योजना के मूल स्वरूप को वापस लाने के लिए फिल्टर प्लांट, पाइप लाइन, साफ-सफाई, तीन सौ गांवों में मीटर बदलने तथा स्टाफ की कमी दूर करने के पांच सौ करोड़ रुपए के प्रस्ताव तैयार किए जा रहे हैं।
-श्रवण कुमार शर्मा, अधीक्षण अभियंता, आपणी योजना, चूरू


ना पूरा पानी, ना सफाई
घासला अगुना पम्प हाउस से जुड़े गांव भुम्भाड़ा में जलापूर्ति अनियमित है। पानी पंचायत भंग होने के कगार पर है। मेहलाणा, बास धेतरवाल व मेहलाणा दिखणादा व उत्तरादा में जलापूर्ति प्रभावित है। हौज के तल में खड्डा है, आधा पानी तो जमीन में ही समा जाता है। हौज की अर्से से सफाई ही नहीं हुई। पम्प का स्टाटर खराब पड़ा है। ब्लीचिंग पाउण्डर ही नहीं है। महलाणा के लोग पांच टंकियों पर कनेक्शन तथा घासला से रोजाणी बाइपास लाइन चाहते हैं।इसके लिए वे खाई खोदने को भी तैयार हैं।वर्तमान में योजना से झुंझुनूं व चूरू
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जिले के राजगढ़, तारानगर, चूरू, रतननगर व बिसाऊ कस्बा तथा करीब 485 गांव जुड़े हैं। योजना की अस्सी फीसदी दुर्गति अवैध कनेक्शनों के कारण हुई है। दस फीसदी व्यवस्थागत खामियां तथा दस फीसदी विभागीय लापरवाही भी जिम्मेदार है। योजना की सबसे बड़ी त्रास्दी यह है इसके शुरू होने के बाद से ही रख-रखाव पर कभी कोई बड़ी राशि खर्च नहीं की गई। इसे
बस चलाते गए। इसलिए वर्तमान में इस स्थिति का सामना करना पड़ा है।
-पीसी शर्मा, एक्सईएन, आपणी योजना, तारानगर
जारी...

Wednesday, April 14, 2010

पानी में आग बुझती कैसे?-

सन्तोष गुप्ता

भीषण गर्मी, सूखा और अकाल के हालत में चारा और पानी के लिए सड़कों पर उतरे ग्रामीणों की मंगलवार को जय-जयकार हो गई। ग्रामीणों की जय-जय होनी भी थी। चूरू में शायद यह पहला अवसर हो जब छत्तीस कौम और बिरादरी के लोग एक मुद्दे पर एक तम्बू के नीचे एक जाजम पर आकर बैठ गए हों। इसमें अहम बात यह थी कि वे मांगें माने जाने तक नहीं उठने के लिए एक साथ आकर बैठे थे। ग्रामीणों का नेतृत्व करने वाले तो उन्हें इतनी बड़ी संख्या में पहुंचने और पूरी दृढ़ता के साथ डटने का हौंसला देखकर ही सैल्यूट कर बैठे थे। प्रशासन को उनके जज्बे और जज्बात के आगे मजबूरन नतमस्तक होना पड़ा। अब रही शासन की बात तो उसके हाथ में कुछ रहा ही नहीं। दूर दराज के गांव और ढाणियों में बसे गरीब, दलित और किसान तक पीने का पानी और पशुओं को चारा मुहैया कराने की उसकी नैतिक जिम्मेदारी जो बनती थी। शासन इससे पीठ कैसे दिखा सकता था।

जबकि जनता ने कड़ी से कड़ी जोड़ दी। इसलिए ग्रामीणों ने इधर पड़ाव डाला उधर सरकार में हलचल हो गई। सरकार ने तुरन्त पानी महकमे के सचिव को उनसे बातचीत के लिए भेज दिया। वरना ऐसे धरने और अनशन राज्य के हर जिला मुख्यालय पर हर दिन होते रहते हैं। कई ऐसी घटनाएं सुर्खियों में आई हैं जब जनता ने पानी के लिए आनाकानी करने पर जलदाय विभाग के कारिंदों के साथ दो-दो हाथ कर लिए या फिर दफ्तर को घेर लिया। सरकार इनमें से कितने पर संवेदनशीलता और तत्परता बरतती है किसी से छुपा नहीं है। चूरू की बात कुछ ओर थी। पहला तो यह कि ग्रामीणों की मांग शत प्रतिशत जायज थी। दूसरा उनकी अगुवाई पर भले किसी पार्टी विशेष की मोहर लगी हो पर उनके आगे चलने वाले नेता जमीन से जुड़े, जनता के विश्वास पात्र और सशक्त प्रतिनिधित्व के धनी थे। शासन को ऐसे हालात में अपनी कमजोरी भांपने में देर नहीं लगी। फिर शासन यह भी जानता था कि पानी में आग लगी तो बुझेगी कैसे? इस चिंगारी को हवा लगी तो पूरा प्रदेश इसकी चपेट में आ जाएगा। सो शासन ने बिना किसी हीलहुज्जत के ठीक उसी तरह जलदाय विभाग के कारिंदों पर आंखें तरेरी जैसे कोई सास नईनवेली बहू को सबक सिखाने के लिए बेटी को फटकार लगाती है। ऐसा करने से हुआ यह कि जनता की भी जय और शासन -प्रशासन की भी जय। जबकि अन्दरखाने सब जानते हैं कि पानी न तो किसी फैक्ट्री में बनाया जा सकता है न ही उसे किसी गुप्त गोदाम में छिपाकर रखा जा सकता है। यदि कुछ किया जा सकता है तो उपलब्ध पानी का कुशल वितरण और सार्थक व किफायती उपयोग किया जा सकता है।

इस कमजोरी को न तो प्रशासन दूर करना चाहता है न जनता इस कमजोरी पर जीत दर्ज करने को गम्भीर नजर आती है। प्यास लगने पर कुआं खोदने की पड़ चुकी आदत आखिर जाते से ही जाएगी। विभागीय कारिंदों ने समय रहते प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजे होते तो हाहाकार नहीं मचता। अब स्थिति यह है कि जो काम उन्हें छह माह पहले कर लेना था वह काम वे छह दिन कैसे करेंगे यह देखने की बात

Thursday, March 18, 2010

इतनी हिम्मत कहां से जुटाई

सन्तोष गुप्ता
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सरदारशहर के संवाददाता का पोस्ट किया समाचार पढ़ा मन बैचेन हो गया। पति के वियोग में तीन बच्चों की मां ने आत्मदाह जो कर लिया था। तीस वर्षीय जवान महिला का इस कदर जिंदा मौत को गले लगाना मेरी समझ से परे था। दिमाग के सारे दरवाजे जैसे झनझना उठे। आखिर उसने इतनी हिम्मत कहां से जुटाई होगी? कुछ दिन पहले ही समाचार मिला था एक प्रेमी युगल कीटनाशक पीकर दुनिया छोड़ चला। नफरत भरी दुनिया में प्यार करने का जोखिम उठाने वाले ये जिंदादिल इंसान भीतर से कितने कमजोर थे इसका पता उनके अलविदा होने पर चला। आर्थिक तंगी, शारीरिक लाचारी और लाइलाज बीमारी में मौत की साधना करने वालों के समाचार चूरू में आए दिन मिलते रहते हैं। हर बार मन इतना व्यथित हो जाता है कि फिर किसी काम में जी लगाना मुश्किल हो जाता है।
सोचता हूं आखिर ऐसा क्यूं हैं? विचार करता हूं तो पाता हूं कि जिस शहर में वार्डों की सीमा समाप्त होते ही पानी का स्वाद बदल जाता हो, जिव्हा नमकीन हो जाती हो। जिस शहर की फिज़ा में खुशबू की जगह दुर्गन्ध बसती हो। जहां सुबह चहचहाती चिडिय़ाओं और कहकहे लगाते तोतों या फिर गुटरगूं करते कबूतरों की आवाज कानों में मीठा रस घोलने के बजाय, रेत के धोरों में नजर गड़ाए दूर आकाश में उड़ती चील की कर्कस चित्कार सुनाई पड़ती हो। जहां शाम पड़े सूरज अस्त होते ही दिनभर की जीतोड़ मजूरी में थका बैशाखनन्दन का कराहना बरबर कानों में गूंजता हो। वहां ऐसा होना अनूठी बात नहीं लगती।
जिस शहर की गली-मोहल्लों में सैकड़ों खिड़कियों और झरोखों वाली बंद पड़ी पुरानी हवेलियां हर राहगीर को आते-जाते दिन में बीसियों बार दिखाई देती हो। यहां के खेत और खलियानों में या शेष रहे उद्यानों में भी हरियाली और ताजी हवा के झोंके निषेध हो चले हों वहां के लोगों की जिंदगी में जीवंतता एवं सोच और विचार में ताजगी की कल्पना कहा से की जा सकती है।
जो जहां पड़ा उसे पड़ा रहने दो जैसा चल रहा है वैसा चलने दो वाले जुमलों को गुनगुनाते लोगों को क्या पड़ी है कि जरा भी विचारे कि अब कुछ नया अपनाने का समय आ गया है। पेंशनरों सी जिंदगी जीते लोगों ने तो शाम पड़े बकरियों को खूंटे से बांधने और मुर्गे-मुर्गियों को पिंजरे में धकलने के बाद गली में कब्जाई जमीन पर चारपाई डालकर सुस्ताने को ही जिंदगी मान ली है। उन्हें तो पैर और पेट के दर्द से कराहते बैशाखीनन्दन का भरपेट खाने के लिए मालिक से चीखचीख कर गुहार लगाना भी हेरिटेज सोंग सा लगता है। डीजे पर दस हजार वाट के स्पीकरों से निकलता साउण्ड भी उन्हें मधुर शास्त्रीय संगीत सा सुनाई पड़ता है।
पति के न रहते तीन बच्चों का पेट पालना, पापी पेट की आग बुझाने के लिए बदन भेदती बदनीयत नजरों का सामना करना, खुदगर्ज समाज की जहर घुली बातों से बच्चों को दूर रख पाना, मतलबी रिश्तेदार के नित मिलते तानों को सह पाना शायद उसे मौत से ज्यादा मुश्किल लगा हो। रोटी के ईंधन और सोने के लिए बंद आंगन का तो उसने जुगाड़ कर लिया था। किसी के आगे झोली नहीं फैलाने का स्वाभिमान भी उसमें था। नहीं तो वह अपने दस साल के बच्चे से मजूरी नहीं कराती खुद पापड़ और मंगोड़ी नहीं बनाती। जिंदगी के चकले पर पेट की आग में सिक कर पापड़ की सी पपड़ाती उसकी भावनाओं और संवेदनाओं का रुदन काश समाज के किसी झण्डावरदारों ने सुन लिया होता।

फिर घुटन नहीं देगी दुर्गन्ध

सन्तोष गुप्ता
चूरू। चूरू के वातावरण में अब घुटन होने लगी है। इसका साफ दिखाई देता कारण शहर के प्राय चहुंओर बढ़ती जा रही गंदे पानी की गैनाणियां हैं। उनसे उठती दुर्गन्ध ने हवाओं को भी बदबूदार कर दिया है। गैनाणियों के आस-पास से गुजरना तो अपना जी खराब करना है। मुंह पर रुमाल रखे बिना तो कोई निकल ही नहीं पाता। गैनाणियों के इर्द-गिर्द बसे लोगों का तो जीना ही मुहाल हो चला है।
दुर्गन्ध युक्त श्वांस लेना तो उनकी नियति बन गई है। गंदे पानी की गैनाणियों में पलते-पनपते मच्छर-मक्खियों ने भी उन्हें परेशान कर रखा है।घरों के खिड़की दरवाजे तक बंद रखने पड़ते हैं। ऐसे में वह ताजा हवा और धूप से भी वंचित हो गए हैं। कुछ परिवारों ने तो हिम्मत जुटाकर अपने घर बदल लिए हैं किन्तु हर कोई ऐसी हिम्मत नहीं कर पा रहा।
शहर के जनप्रतिनिधियों से लेकर जिला प्रशासन के आला अधिकारी तक सब इस समस्या से वाकिफ हैं किन्तु करता कोई कुछ नहीं। ऐसा नहीं कि गंदे पानी का उपयोग नहीं हो सकता। योजनाएं हैं पर उस दिशा में कभी विचार नहीं किया गया। इस मोहल्ले का पानी उस मोहल्ले में लेजाकर छोडऩे तक की जद्दोजहद में ही जनप्रतिनिधि उलझे रहे। ऐसे मेंं गंदे पानी में आवश्यक दवाई डलवाने अथवा समय-समय पर उसकी सफाई करवाने तक भी किसी का ध्यान नहीं गया। स्थिति तो यह है कि किसी ने गैनाणियों का आकार सीमित रखने का भी विचार नहीं किया।
नतीजा रहा कि छोटी गैनाणी भी अब विशाल तालाब का सा रूप लेने लगी हैं।अब तो गैनाणियां शहरवासियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालने लगी हैं बल्कि हेरिटेज सिटी कहे जाने वाले चूरू शहर के सौन्दर्य पर भी ग्रहण लगा रही हैं। नगर परिषद प्रशासन, शहर के जनप्रतिनिधि, जिला प्रशासन को इस संबन्ध में सामूहिक बैठकर विचार करना चाहिए। ऐसा नहीं कि इस समस्या का कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सकता।
चांद पर पानी की खोज की जा चुकी है तो क्या धरती पर गंदे पानी का इस्तेमाल किए जाने की कोई युक्ति सुझाई नहीं दे सकती। दे सकती है। मैं तो कहता हूं है भी। पर जरूरत है इस विषय में साझा सोच और ठोस प्रयास की। ऐसा हुआ तो चूरू में एक दिन इसी गंदे पानी से न सिर्फ बिजली बनाई जा सकती है अपितु पानी का ट्रीटमेंट कर उससे खेती और हरियाली पनपाई जा सकती है। फिर दुर्गन्ध घुटन नहीं देगी।

जानते सब हैं पर जागते नहीं

सन्तोष गुप्ता
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।

उपभोक्ता जानता सब है पर जागता नहीं

सन्तोष गुप्ता
चूरू। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता होने के नाते उसके पास कुछ अधिकार भी हैं तो कत्र्तव्य भी। उपभोक्ता है कि वह सब जानता है पर फिर भी अपने अधिकारों के लिए जागता नहीं।
सूचना एवं जनसंचार क्रांति के दौर में दुनिया के तमाम बाजार मुट्ठी में सिमट आए हैं। दुनियाभर की उपभोग वस्तुओं को मोल-भाव और खरीदारी व्यक्ति अंगुलियों से बटन दबा कर घर बैठे कर सकता है। आलपिन से लेकर हवाईजहाज तक व्यक्ति की हथेली पर है। उसे तो बस अपना हित और अहित देखते हुए और समझते हुए उसके क्रय-विक्रय या उपभोग का निर्णय करना है। जुबान हिली नहीं कि उपभोग के लिए वांछित सामग्री उसकी आंखों के सामने होती है। खरीदारी में पहले जैसा जटिल और कठिन भी कुछ भी नहीं रहा। पर यह जितना आसान हो गया है उतना ही आंखों का धोखा खाना और उपभोक्ता का ठगा जाना बढ़ गया है। सजगता और सतर्कता में जरा भी चूक हुई नहीं कि वहीं धोखा खा गए।
उपभोग की वस्तुओं में गला काट प्रतिस्पर्धा के चलते उपभोक्ता को सही और गलत का, असली और नकली का, सस्ते और महंगे का, शुद्ध और अशुद्ध का सहजता से भान होना ही मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि केन्द्र और राज्य सरकार ने उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए समय-समय पर कई येाजनाएं बनाई हैं। अभियान चलाए हैं। प्रचार-प्रसार के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विज्ञापन जारी किए हैं। रैली आयोजन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा, सभाओं के माध्यम से हर आम उपभोक्ता को उसके अधिकार बताने और समझाने का प्रयास किया है। फिर भी जहां-तहां देखा जा सकता है कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति आम शहरी उतना सजग और सतर्क नहीं है जितना उसे होना चाहिए। जान कर हैरानी हुई कि उपभोक्ता के अधिकारों के प्रति शहरी शिक्षित वर्ग ही ज्यादा अनदेखी बरत रहा है। ग्रामीणजन उतने ही जागरूक हुए हैं। यह बात दीगर है कि उपभोक्ता का शोषण रोकने व उसे उसका अधिकार दिलाने के लिए वर्ष 198 6 में बने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की उसे जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो वह उसका उपयोग नहीं करता है। दो दशक से अधिक समय बीत गया उपभोक्ता में जागरुकता का अभाव इस स्तर पर है कि आज भी हजारों उपभोक्ता छोटी-मोटी खरीदारी पर ही अवसरवादियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे हैं। मैंने जानना चाहा तो पता चला कि बहुत से लोग तो यह समझ नहीं पाते उसके अधिकार क्या हैं। उनके लिए बताना जरूरी है कि जो व्यक्ति किसी भी वस्तु या सेवा का उपयोग करता है, वह उस वस्तु या सेवा का उपभोक्ता होता है। हर उपभोक्ता को अपने अधिकार प्राप्त है। जो व्यक्ति व्यापारिक प्रयोजन अथवा पुन: बिक्री के प्रयोजन से खरीदता है तो वह उपभोक्ता नहीं है। लेकिन कोई व्यक्ति स्व-रोजगार के जरिए जीविका कमाने के प्रयोजन से वस्तुएं खरीदता है तो वह एक उपभोक्ता है।
जोरदार बात तो यह है कि बच्चे को पढ़ाने वाला शिक्षक बच्चे को सही नहीं पढ़ाता है, समय पर नहीं पढ़ाता है या फिर गलत पढ़ाता है तो भी उपभोक्ता कानून उसे शोषण से राहत दिला सकता है । बच्चा जिस स्कूल में पढ़ रहा वह स्कूल शिक्षण शुल्क दस माह की बजाय बारह माह का वसूल कर रही है। शिक्षण संस्था विकास शुल्क वसूल कर रही है। दुकानदार खाद्य वस्तुओं में मिलावट करता है। निर्धारित मूल्य से अधिक वसूल कर रहा तो भी उपभोक्ता कानून का उपयोग कर शोषण से बचा जा सकता है। इसके अलावा उपभोक्ता का व्यापारी, कंपनी, एवं आवश्यक सेवाओं से जुड़े सरकारी विभागों द्वारा शोषण किया जाता है अथवा उसे अधिकारों से वंचित किया जाता है तो भी उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा के लिए मंच उपभोक्ता संरक्षण का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उपभोक्ता संरक्षण कानून का लाभ आम उपभोक्ता को दिलाने के लिए सरकार की ओर से कोई निशुल्क सहज और सुलभ व्यवस्था होनी चाहिए। इससे व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त दबाव के मंच तक अपनी शिकायत पहुंचा सके। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्र का उपभोक्ता तो मंच तक शिकायत में लगने वाले हर्जे-खर्चे और समय-श्रम साध्य परेशानी के झंझट में पडऩे से घबराता है। वह आवेदन करने, अभिभाषक को खोजने में ही विचार त्याग देता है।

अच्छा होगा अच्छा मत करो

सन्तोष गुप्ता
चूरू। आपके लिए बहुत अच्छा होगा बस आप कुछ अच्छा मत करो। इस बात में बहुत सच्चाई है। जितनी सच्चाई है, उतनी गहराई भी। जीवन में बहुत से मौके आते हैं जब आप-हम कुछ अच्छा करना चाहते हंै। चाहते ही नहीं करते भी हैं। परिणाम सकारात्मक नहीं आता। अपेक्षा के अनुकूल नहीं होता। इससे मन में ग्लानि पैदा होती है। आगे कुछ अच्छा करने की तमन्ना मर जाती है। हताशा का भाव जागृत हो जाता है। इसे सूक्ष्मता से समझने की जरूरत है। जब भी ऐसा होता है तो इसके लिए आप दोषी नहीं हैं।
यह बात ठीक तरह से समझ लें। दरअसल जब हम अच्छा करना चाहते है तो इसके पीछे हमारा आध्यात्मिक दृष्टिकोण काम करता है। हमारी आत्मसंतुष्टि होती है। हमारी आत्मिक उत्कंठा होती है। इसमें उज्ज्वल भविष्य की अभिलाषा होती है। कहीं न कहीं किसी रूप में दूर-दृष्टि काम करती है। अच्छा करने के विचार से ही आप ऊर्जावान हो जाते हैं।समय के गर्भ में छिपे छल और षडयंत्रों के तोड़ की सोच हावी होती है। सहकर्मियों और सहपाठियों से श्रेष्ठता का भाव निहित होता। समकालीनों में अलग पहचान की इच्छा प्रभावी होती है। यह सब इसलिए होता है क्यों कि बचपन से लेकर अब तक हम यही तो पढ़ते-सुनते आए हंै। आप अच्छे तो जग अच्छा। अच्छा करोगे अच्छा -पाओगे। जैसा बोओगे-वैसा पाओगे। जितना बांटोगे-दुगना पाओगे। जितना त्यागोगे-चौगना आएगा। बगैरहा-बगैरहा।यह सब फलसफे अब कारगर नहीं रहे। बीते दिनों की बीती बातों की तरह सैद्धांतिक किताबों का हिस्सा बन गए। मौजूदा दौर सिद्धांतों पर नहीं व्यवहारिकता पर चलने का है। अब अच्छा करने, अच्छा दिखने, अच्छा होने, अच्छा बनने के मायने बदल गए हैं। अब अच्छाई को अच्छी आंखों से नहीं देखा जाता। सच्चाई को सच्ची तुला पर नहीं तौला जाता। ठीक उसी तरह जैसे खूबसूरती को खूबसूरत होने और दिखने की सशंकित नजरों से देखा जाता है।धार्मिक को पाखण्डी माना जाता है।
पुरुषार्थी को बेवकूफ कहा जाता है। विनम्र को चाटुकार, सहनशील और धैर्य वान को कमजोर समझा जाता है।नए जमाने के नए जुमले हैं खुद कुछ मत करो-किसी ने अच्छा कर दिया तो उसे अपना बता दो। ऐसा कर सको तो अच्छा नहीं तो अच्छा होने को ही झुठला दो। दूसरा यह कि जो हो रहा है होने दो न रोको न टोको न सहमति दर्शाओ न असहमति जताओ। कोई श्रेय देे तो ले लो उलाहना मिले तो पलटी खा जाओ।
तीसरा जैसा होगा-हो जाएगा। जितना होगा-उतना सही। न सक्रियता दर्शाओ न निष्क्रिय बने रहो। तटस्थभाव रखो। इसके पीछे एक सूत्र है। यह सूत्र बड़ा ही सूक्ष्म है। काम करो या ना करो, काम की फिक्र करो और फिक्र का जिक्र करो। दुनिया समझेगी आप काम को लेकर काफी चिंतित है। निष्ठावान हैं और समर्पित हैं। बस संयोग ही है कि काम हो नहीं रहा। सच मानिए इसमें आपके साथ गलत कुछ नहीं होगा। क्यों कि जब कुछ किया ही नहीं, कुछ हुआ ही नहीं, कुछ होना भी नहीं है तो फिर होगा भी क्या। आपके साथ अच्छा या बुरा तो तब होगा जब कुछ हुआ होगा। आपने कुछ किया होगा। इसलिए अच्छा होगा अच्छा मत करो।

Thursday, February 4, 2010

पहल आज ही क्यों न हो

-सन्तोष गुप्ता

पंचायतीराज चुनाव की गरमाहट ने थळी की नश्तर चुभती सर्द हवाओं को शिकस्त दे दी है। समूचा थळी अंचल चुनावी अलाव के ताप में चुस्त और स्फूर्त नजर आ रहा है। बुनियादी सुविधाओं के अभाव की टीस कहीं दब गई है। सिर्फ और सिर्फ चुनाव में जीत का जोश और जुनून सिर पर चढ़ा है। कहीं कोई थकावट नहीं है। कहीं कोईकड़वाहट नहीं है। प्रतिद्वंद्वी भी यहां दोस्त बना है, तो कहीं रिश्तेदार भी प्रतिद्वंद्वी हो चला है। रिश्तों में मिठास और हुक्के संग अट्ठहास जहां का तहां बना है। पहले दौर में रतनगढ़ और सुजानगढ़ तथा दूसरे चरण में चूरू और तारानगर का निर्विघ्न चुनाव तीसरे चरण के लिए मिसाल बन गया है। इन दो दौर में रहे शांति और सुकून पर सिर्फ प्रशासन की ही नहीं, अंचल के हर वाशिंदे की हिस्सेदारी है। सुजागढ़ की पारेवड़ा ग्राम पंचायत ने तो इतिहास ही रच दिया। पूरे गांव ने अपना मुखिया ही नहीं समूची पंचायत को निर्विरोध चुन लिया। यह राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के ग्राम स्वराज का सपना साकार होने जैसा रहा । आज जबकि हमनें बापू की पुण्यतिथि और 6 1 वां गणतंत्र दिवस मनाया हैं यह मिसाल निश्चित ही कृतज्ञराष्ट्र वासियों की ओर से उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि कही जा सकती है। निर्विरोध पंचायत चुने जाने की मिसाल दूसरे चरण में भी बन सकती थी। हमने बहुत से पंच और उपसरपंच तो निर्विरोध चुने पर पूरी पंचायत नहीं चुन सके।

दरअसल इसके लिए किसी ने पहल, प्रयास ही नहीं किया। ऐसा सम्भव हो सकता था। पहल करने और मिसाल बनने का कभी मुहूर्त नहीं निकाला जाता। घर-परिवार, गांव-ढाणी, संस्था-समाज और राज्य-राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने की दिली इच्छा हो तो कारवां बनता चला जाता है। आज उठने वाला एक कदम कल का मार्ग प्रशस्त करता है। मन का नेक ख्याल भावी पीढ़ी का पथ प्रदर्शक बन जाता है। दूर देखने और ऊंचा सोचने का कभी किसी के नाम ठेका तो नहीं छूटा? आप और हम भी ऐसा विचार करंे तो गांव और गुवाड़ की सूरत और सीरत बदल सकती हैं। सरकार आती है और चली जाती है। गांव के विकास के वायदे होते और अधूरे रह जाते हैं। धन आता है और खर्च हो जाता है। गांव के चौपाल का चबूतरा नहीं सुधरता। गुवाड़ की नाली का पानी सड़क पर बहना नहीं रुकता। स्कूल का कमरा मास्टर को और स्वास्थ केन्द्र डाक्टर को उडीकता रहता है। यह सब क्यों होता है? क्या कभी किसी ने सोचा है? अब तक नहीं सोचा तो अब सोचो। सधे हाथों में अपना नेतृत्व सौंपो। गांव के विकास के लिए सच्चे और अच्छे नेता को चुनो। हो सके मुखिया, ज्यादा हो तो पूरी पंचायत निर्विरोध चुनलो। चुनाव का तीसरा और अंतिम चरण अभी बाकी है।

राजगढ़ और सरदारशहर वासियों की कथनी और करनी का इम्तिहान अभी बाकी है। निष्पक्ष, निर्भीक और निर्विरोध पंचायत फिर चुनी जा सकती है। ऐसी दूसरी मिसाल बने तो वह अपने गांव की ही क्यों न हो? गांव को राज्य और राष्ट्र स्तर पर मिले पहचान, तो पहल आज ही क्यों न हो?

Monday, January 25, 2010

बधाई

जन गण का मन से अभिनंदन। लोक तंत्र के हर गण को गणतंत्र दिवस की कोटि-कोटि बधाई।

Thursday, January 21, 2010

ऐसी भी क्या जल्दी है

आज हर किसी को जल्दी है। खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-चलते सब फटाफट हो बस। कोई भी धैर्य और संयम रखना नहीं चाहता। मैं पिछले दिनों घर से दफ्तर के रास्ते पर था। रास्ता थोड़ा सकड़ा था। यूं मान लो कि एक तरफा था। मेरे स्कूटर के आगे एक सज्जन अंतिम यात्रा पर थे। उनके पीछे सैकड़ों लोग चल रहे थे। मैं थोड़ा ठिठक गया। स्कूटर के ब्रेक लगा कर गति धीमी कर ली। उनके पीछे हो लिया। कमोबेश हर कोई आपस में बतियाता हुआ ही चल रहा था। जैसे जरूरी बात करने का इससे बेहतर मौका उन्हें पहले नहीं मिला और शायद बाद में भी नहीं मिले। इतने में मेरे नजदीक से स्कूल का छात्र पिता की दिलाई मोटरसाइकिल पर पूरी रफ्तार से गुजरा। पिता की दिलाई मैं इसलिए कह सकता हूं कि उसके पीछे लिखा था डेडीज-गिफ्ट। उसने हॉर्न देकर लोगों को एक तरफ होने की हिदायत दी। लेने-देन के हेर-फेर की गुफ्तगू में मशगूल लोगों को क्या पड़ी कि छात्र के दिए हॉर्न पर कान धरते। उसे स्कूल पहुंचने की जल्दी थी। छात्र जैसे-तैसे अपने लिए जगह निकाल कर आगे बढ़ गया। मैं सोचता रहा कि इस अंतिम यात्रा से भी आगे कोई निकल सकता है? कल की ही खबर थी राजगढ़ में ट्रेन से आगे निकलने के प्रयास में जीप में सवार सात लोगों की मौत हो गई। सभी लोगों को अपने रिश्तेदार के यहां शोक व्यक्त करने पहुंचने की जल्दी थी। एक सप्ताह पहले ही निकटवर्ती चूरू-रतननगर मार्ग पर जीप में सवार आठ लोगों के सड़क दुर्घटना में प्राण पखेरू उड़ गए। वे रिश्तेदार के यहां शोक व्यक्त कर घर लौटने की तेजी में थे। आज फिर सूचना मिली कि राजगढ़ में हडिय़ाल के निकट सड़क दुर्घटना में तीन जनों की मौत हो गई। ये सभी चुनाव के चलते मतदाताओं तक मदिरा पहुंचाने की जल्दी में थे। नए साल के अब तक गुजरे बीस दिनों में ऐसी पांचवीं सूचना है जब तेजी से आगे निकलने की चाह में लोग अपने घर के बजाय भगवान के घर पहुंच गए। बढ़ती सड़क दुर्घटनाएं सभी के लिए चिंता और चिंतन का कारण है। विशेष तौर पर उनके लिए जिन्हें यातायात नियंत्रण के लिए पेशेगत जिम्मेदारी सौंप रखी है। उन्हें इस काम का मेहनताना मिलता है। लिहाजा उनका कत्र्तव्य भी बनता है और धर्म भी। यातायात पुलिस हो या परिवहन महकमे के कारिंदे इस ओर तनिक भी ध्यान दें तो हादसों में काफी कमी हो सकती है। सड़क सुरक्षा सप्ताह मनाया जाना लोगों को जागरूक करने के लिए अच्छा प्रयास हो सकता है। किन्तु ड्यूटी पर रहते हुए सजगता और सतर्कता बरतने का कौन सा सप्ताह मनाया जाए यह समझ से परे है? ओवरलोड वाहनों का सरपट सड़कों पर दौडऩा। अवैध वाहनों का संचालित होना। छोटी उम्र के बच्चों को बड़े वाहन चलाते देखा जाना। गति सीमा से तेज चलते वाहनों को नहीं रोकना किसकी कमजोरी जाहिर करती है। गश्ती पुलिस, हाइवे पुलिस, मोटरसाइकिल राइडर, स्पेशल फ्लाईंग, आदि जाने कितने स्क्वायड बने हुए हैं। ऐसे हालात देखकर कहा जा सकता है कि सभी आंख बंद रखने की ही नौकरी कर रहे हैं। खुली आंखों के सामने कुछ हो तो उन्हें क्या पड़ी है।वैसे सफर में जोखिम का ख्याल रखना सफर करने वाले का पहला धर्म है। लोगों को भी चाहिए कि इस बात को समझे कि दुर्घटना से देर भली। वाहन में क्षमता से अधिक बैठना और चालक को जल्दी पहुंचने की कहना समय और धन की बचत करा सकता है, जीवन के जोखिम से छुटकारा नहीं दिला सकता।

मन की मिटाएं दरिद्रता

भारतीय संस्कार और संस्कृति में दान का बड़ा महत्व हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दान करने से धन - धान्य और ज्ञान बढ़ता है। जन कल्याण और लोक हित में किए गए गरिमा पूर्ण दान की तो बड़ी महिमा है। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में बुर्जुगों की ओर से किए गए दान की ही देन है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बसे लोग आज राहत पा रहे हैं। राहगीर के लिए जंगल में भी दाना-पानी और छाया उन्हीं की बदौलत सहज-सुलभ है। मरु और थळि प्रदेशवासी अपने बुजुर्गों के किए इन कार्यों की अहमियत को बखूबी समझते हैं जब बदन झुलसाती गर्मी और नश्तर चुभती, हाड़ कंपाती सर्दी में उन्हें इनकी जरूरत महसूस होती है। चूरू में तो इन दिनों दीन-दुखियों, असहाय और जरूरतमंदों को गरम वस्त्र भेंट करने की बाढ़ आ रखी है। हर कर्मवीर यहां दानवीर की भूमिका में नजर आने की होड़ में लगा हुआ है।
निसंदेह यह सबके लिए प्रेरणास्प्रद है। विशेषतौर पर तब जबकि समाज में भूमि-धन-धान से बढ़कर अब तो रक्त दान, नेत्रदान, गुर्दा दान यहां तक कि देह दान भी किया जाने लगा है। बहुत से सामाजिक और स्वयं सेवी संगठन इन कार्यों में सक्रिय हैं। नवीनतम सूचना के रूप में वयोवृद्ध माक्र्सवादी नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की देहदान की अंतिम इच्छा तो, चिकित्सकीय सेवा को तवज्जो देने वाले संवेदनशील प्रत्येक प्राणी के लिए प्रेरक है। विशेष तौर पर तब जबकि देश में बढ़ती आबादी, सिकुड़ती धरती, घटते धान और सिमटते पानी की तरह चिकित्सकीय पेशे के प्रति भी युवाओं का रुझान गिरने लगा है। दुख तब होता है जब कुछ सामाजिक संगठन और उनसे जुड़े शिष्ट और समझदार लोग असहायों और जरूरतमंदों की सेवा में सामान्य से शिष्टाचार का भी पालन नहीं करते। इसे उनके मन की दरिद्रता ही कहा जा सकता है जो समाज सेवा के दिखावे की बलवती इच्छा के आगे छिपाए नहीं छिपती। पिछले दिनों ऐसे कई उदाहरण सामने आए जबकि संस्थाओं और संगठनों ने दीन-हीन, असहाय और भूखे को रोटी खिलाने के नाम पर आंतरिक दरिद्रता का प्रदर्शन किया। जिस स्थान पर वे स्वयं बिना चप्पल के खड़े नहीं हो सकते वहां बैठाकर और जिस तरह से उन्हें भोजन उपलब्ध कराया गया वह मामूली सी भी संवेदना रखने वालों के लिए शर्मिंदगी वाली थी। हैरत तब होती है जब परिवार के किसी बुजुर्ग की पुण्यतिथि पर किए जाने वाले दान या गरीब को कराए जाने वाले भोजन का भी क्लबीकरण कर संस्थाएं प्रचार चाहती हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि ऐसे लोग और संस्थाएं उन लोगों से बेहतर है जो साधन-सम्पन्न होते हुए भी दान-धर्म और त्याग में विश्वास नहीं रखते। लेकिन जनसेवा में यदि जरा सी व्यवस्थागत बातों का ख्याल रखा जाए तो क्या हर्ज है। गरीब को सड़क पर नाली के किनारे बैठाकर बिना दोना, पत्तल आदि उपयुक्त पात्र दिए भोजन कराने से बेहतर हो कि भोजन के पैकिट बना कर उन्हें वितरित कर दिए जाएं ताकि वे कम से कम स्वच्छ स्थान पर तसल्ली से बैठकर उसका भरपूर आनन्द ले सके और प्रभू के गुण गा सकें। स्कूलों में नन्हें बच्चों को गरम वस्त्र वितरण करते हुए उनकी फोटो खींचकर स्कूलों में लगाना या प्रकाशित कराना बच्चों में किस भावना के जागरण का पोषक है यह विचार किया जाना चाहिए।