भारतीय संस्कार और संस्कृति में दान का बड़ा महत्व हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दान करने से धन - धान्य और ज्ञान बढ़ता है। जन कल्याण और लोक हित में किए गए गरिमा पूर्ण दान की तो बड़ी महिमा है। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में बुर्जुगों की ओर से किए गए दान की ही देन है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बसे लोग आज राहत पा रहे हैं। राहगीर के लिए जंगल में भी दाना-पानी और छाया उन्हीं की बदौलत सहज-सुलभ है। मरु और थळि प्रदेशवासी अपने बुजुर्गों के किए इन कार्यों की अहमियत को बखूबी समझते हैं जब बदन झुलसाती गर्मी और नश्तर चुभती, हाड़ कंपाती सर्दी में उन्हें इनकी जरूरत महसूस होती है। चूरू में तो इन दिनों दीन-दुखियों, असहाय और जरूरतमंदों को गरम वस्त्र भेंट करने की बाढ़ आ रखी है। हर कर्मवीर यहां दानवीर की भूमिका में नजर आने की होड़ में लगा हुआ है।
निसंदेह यह सबके लिए प्रेरणास्प्रद है। विशेषतौर पर तब जबकि समाज में भूमि-धन-धान से बढ़कर अब तो रक्त दान, नेत्रदान, गुर्दा दान यहां तक कि देह दान भी किया जाने लगा है। बहुत से सामाजिक और स्वयं सेवी संगठन इन कार्यों में सक्रिय हैं। नवीनतम सूचना के रूप में वयोवृद्ध माक्र्सवादी नेता और पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु की देहदान की अंतिम इच्छा तो, चिकित्सकीय सेवा को तवज्जो देने वाले संवेदनशील प्रत्येक प्राणी के लिए प्रेरक है। विशेष तौर पर तब जबकि देश में बढ़ती आबादी, सिकुड़ती धरती, घटते धान और सिमटते पानी की तरह चिकित्सकीय पेशे के प्रति भी युवाओं का रुझान गिरने लगा है। दुख तब होता है जब कुछ सामाजिक संगठन और उनसे जुड़े शिष्ट और समझदार लोग असहायों और जरूरतमंदों की सेवा में सामान्य से शिष्टाचार का भी पालन नहीं करते। इसे उनके मन की दरिद्रता ही कहा जा सकता है जो समाज सेवा के दिखावे की बलवती इच्छा के आगे छिपाए नहीं छिपती। पिछले दिनों ऐसे कई उदाहरण सामने आए जबकि संस्थाओं और संगठनों ने दीन-हीन, असहाय और भूखे को रोटी खिलाने के नाम पर आंतरिक दरिद्रता का प्रदर्शन किया। जिस स्थान पर वे स्वयं बिना चप्पल के खड़े नहीं हो सकते वहां बैठाकर और जिस तरह से उन्हें भोजन उपलब्ध कराया गया वह मामूली सी भी संवेदना रखने वालों के लिए शर्मिंदगी वाली थी। हैरत तब होती है जब परिवार के किसी बुजुर्ग की पुण्यतिथि पर किए जाने वाले दान या गरीब को कराए जाने वाले भोजन का भी क्लबीकरण कर संस्थाएं प्रचार चाहती हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि ऐसे लोग और संस्थाएं उन लोगों से बेहतर है जो साधन-सम्पन्न होते हुए भी दान-धर्म और त्याग में विश्वास नहीं रखते। लेकिन जनसेवा में यदि जरा सी व्यवस्थागत बातों का ख्याल रखा जाए तो क्या हर्ज है। गरीब को सड़क पर नाली के किनारे बैठाकर बिना दोना, पत्तल आदि उपयुक्त पात्र दिए भोजन कराने से बेहतर हो कि भोजन के पैकिट बना कर उन्हें वितरित कर दिए जाएं ताकि वे कम से कम स्वच्छ स्थान पर तसल्ली से बैठकर उसका भरपूर आनन्द ले सके और प्रभू के गुण गा सकें। स्कूलों में नन्हें बच्चों को गरम वस्त्र वितरण करते हुए उनकी फोटो खींचकर स्कूलों में लगाना या प्रकाशित कराना बच्चों में किस भावना के जागरण का पोषक है यह विचार किया जाना चाहिए।
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