सन्तोष गुप्ता
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सरदारशहर के संवाददाता का पोस्ट किया समाचार पढ़ा मन बैचेन हो गया। पति के वियोग में तीन बच्चों की मां ने आत्मदाह जो कर लिया था। तीस वर्षीय जवान महिला का इस कदर जिंदा मौत को गले लगाना मेरी समझ से परे था। दिमाग के सारे दरवाजे जैसे झनझना उठे। आखिर उसने इतनी हिम्मत कहां से जुटाई होगी? कुछ दिन पहले ही समाचार मिला था एक प्रेमी युगल कीटनाशक पीकर दुनिया छोड़ चला। नफरत भरी दुनिया में प्यार करने का जोखिम उठाने वाले ये जिंदादिल इंसान भीतर से कितने कमजोर थे इसका पता उनके अलविदा होने पर चला। आर्थिक तंगी, शारीरिक लाचारी और लाइलाज बीमारी में मौत की साधना करने वालों के समाचार चूरू में आए दिन मिलते रहते हैं। हर बार मन इतना व्यथित हो जाता है कि फिर किसी काम में जी लगाना मुश्किल हो जाता है।
सोचता हूं आखिर ऐसा क्यूं हैं? विचार करता हूं तो पाता हूं कि जिस शहर में वार्डों की सीमा समाप्त होते ही पानी का स्वाद बदल जाता हो, जिव्हा नमकीन हो जाती हो। जिस शहर की फिज़ा में खुशबू की जगह दुर्गन्ध बसती हो। जहां सुबह चहचहाती चिडिय़ाओं और कहकहे लगाते तोतों या फिर गुटरगूं करते कबूतरों की आवाज कानों में मीठा रस घोलने के बजाय, रेत के धोरों में नजर गड़ाए दूर आकाश में उड़ती चील की कर्कस चित्कार सुनाई पड़ती हो। जहां शाम पड़े सूरज अस्त होते ही दिनभर की जीतोड़ मजूरी में थका बैशाखनन्दन का कराहना बरबर कानों में गूंजता हो। वहां ऐसा होना अनूठी बात नहीं लगती।
जिस शहर की गली-मोहल्लों में सैकड़ों खिड़कियों और झरोखों वाली बंद पड़ी पुरानी हवेलियां हर राहगीर को आते-जाते दिन में बीसियों बार दिखाई देती हो। यहां के खेत और खलियानों में या शेष रहे उद्यानों में भी हरियाली और ताजी हवा के झोंके निषेध हो चले हों वहां के लोगों की जिंदगी में जीवंतता एवं सोच और विचार में ताजगी की कल्पना कहा से की जा सकती है।
जो जहां पड़ा उसे पड़ा रहने दो जैसा चल रहा है वैसा चलने दो वाले जुमलों को गुनगुनाते लोगों को क्या पड़ी है कि जरा भी विचारे कि अब कुछ नया अपनाने का समय आ गया है। पेंशनरों सी जिंदगी जीते लोगों ने तो शाम पड़े बकरियों को खूंटे से बांधने और मुर्गे-मुर्गियों को पिंजरे में धकलने के बाद गली में कब्जाई जमीन पर चारपाई डालकर सुस्ताने को ही जिंदगी मान ली है। उन्हें तो पैर और पेट के दर्द से कराहते बैशाखीनन्दन का भरपेट खाने के लिए मालिक से चीखचीख कर गुहार लगाना भी हेरिटेज सोंग सा लगता है। डीजे पर दस हजार वाट के स्पीकरों से निकलता साउण्ड भी उन्हें मधुर शास्त्रीय संगीत सा सुनाई पड़ता है।
पति के न रहते तीन बच्चों का पेट पालना, पापी पेट की आग बुझाने के लिए बदन भेदती बदनीयत नजरों का सामना करना, खुदगर्ज समाज की जहर घुली बातों से बच्चों को दूर रख पाना, मतलबी रिश्तेदार के नित मिलते तानों को सह पाना शायद उसे मौत से ज्यादा मुश्किल लगा हो। रोटी के ईंधन और सोने के लिए बंद आंगन का तो उसने जुगाड़ कर लिया था। किसी के आगे झोली नहीं फैलाने का स्वाभिमान भी उसमें था। नहीं तो वह अपने दस साल के बच्चे से मजूरी नहीं कराती खुद पापड़ और मंगोड़ी नहीं बनाती। जिंदगी के चकले पर पेट की आग में सिक कर पापड़ की सी पपड़ाती उसकी भावनाओं और संवेदनाओं का रुदन काश समाज के किसी झण्डावरदारों ने सुन लिया होता।
कम्प्यूटर की स्क्रीन पर सरदारशहर के संवाददाता का पोस्ट किया समाचार पढ़ा मन बैचेन हो गया। पति के वियोग में तीन बच्चों की मां ने आत्मदाह जो कर लिया था। तीस वर्षीय जवान महिला का इस कदर जिंदा मौत को गले लगाना मेरी समझ से परे था। दिमाग के सारे दरवाजे जैसे झनझना उठे। आखिर उसने इतनी हिम्मत कहां से जुटाई होगी? कुछ दिन पहले ही समाचार मिला था एक प्रेमी युगल कीटनाशक पीकर दुनिया छोड़ चला। नफरत भरी दुनिया में प्यार करने का जोखिम उठाने वाले ये जिंदादिल इंसान भीतर से कितने कमजोर थे इसका पता उनके अलविदा होने पर चला। आर्थिक तंगी, शारीरिक लाचारी और लाइलाज बीमारी में मौत की साधना करने वालों के समाचार चूरू में आए दिन मिलते रहते हैं। हर बार मन इतना व्यथित हो जाता है कि फिर किसी काम में जी लगाना मुश्किल हो जाता है।
सोचता हूं आखिर ऐसा क्यूं हैं? विचार करता हूं तो पाता हूं कि जिस शहर में वार्डों की सीमा समाप्त होते ही पानी का स्वाद बदल जाता हो, जिव्हा नमकीन हो जाती हो। जिस शहर की फिज़ा में खुशबू की जगह दुर्गन्ध बसती हो। जहां सुबह चहचहाती चिडिय़ाओं और कहकहे लगाते तोतों या फिर गुटरगूं करते कबूतरों की आवाज कानों में मीठा रस घोलने के बजाय, रेत के धोरों में नजर गड़ाए दूर आकाश में उड़ती चील की कर्कस चित्कार सुनाई पड़ती हो। जहां शाम पड़े सूरज अस्त होते ही दिनभर की जीतोड़ मजूरी में थका बैशाखनन्दन का कराहना बरबर कानों में गूंजता हो। वहां ऐसा होना अनूठी बात नहीं लगती।
जिस शहर की गली-मोहल्लों में सैकड़ों खिड़कियों और झरोखों वाली बंद पड़ी पुरानी हवेलियां हर राहगीर को आते-जाते दिन में बीसियों बार दिखाई देती हो। यहां के खेत और खलियानों में या शेष रहे उद्यानों में भी हरियाली और ताजी हवा के झोंके निषेध हो चले हों वहां के लोगों की जिंदगी में जीवंतता एवं सोच और विचार में ताजगी की कल्पना कहा से की जा सकती है।
जो जहां पड़ा उसे पड़ा रहने दो जैसा चल रहा है वैसा चलने दो वाले जुमलों को गुनगुनाते लोगों को क्या पड़ी है कि जरा भी विचारे कि अब कुछ नया अपनाने का समय आ गया है। पेंशनरों सी जिंदगी जीते लोगों ने तो शाम पड़े बकरियों को खूंटे से बांधने और मुर्गे-मुर्गियों को पिंजरे में धकलने के बाद गली में कब्जाई जमीन पर चारपाई डालकर सुस्ताने को ही जिंदगी मान ली है। उन्हें तो पैर और पेट के दर्द से कराहते बैशाखीनन्दन का भरपेट खाने के लिए मालिक से चीखचीख कर गुहार लगाना भी हेरिटेज सोंग सा लगता है। डीजे पर दस हजार वाट के स्पीकरों से निकलता साउण्ड भी उन्हें मधुर शास्त्रीय संगीत सा सुनाई पड़ता है।
पति के न रहते तीन बच्चों का पेट पालना, पापी पेट की आग बुझाने के लिए बदन भेदती बदनीयत नजरों का सामना करना, खुदगर्ज समाज की जहर घुली बातों से बच्चों को दूर रख पाना, मतलबी रिश्तेदार के नित मिलते तानों को सह पाना शायद उसे मौत से ज्यादा मुश्किल लगा हो। रोटी के ईंधन और सोने के लिए बंद आंगन का तो उसने जुगाड़ कर लिया था। किसी के आगे झोली नहीं फैलाने का स्वाभिमान भी उसमें था। नहीं तो वह अपने दस साल के बच्चे से मजूरी नहीं कराती खुद पापड़ और मंगोड़ी नहीं बनाती। जिंदगी के चकले पर पेट की आग में सिक कर पापड़ की सी पपड़ाती उसकी भावनाओं और संवेदनाओं का रुदन काश समाज के किसी झण्डावरदारों ने सुन लिया होता।
भाई संतोष जी,
ReplyDeleteसंवाद का सफर कर अच्छा लगा।आप संवाददाता ही नहीँ संवेदनापुंज भी हैँ।यदि हम घटनाक्रम से संवेदित नहीँ होते हैँ तो हमारा संग्रहित संवाद विश्वसनीय एवं वांछित तथ्यात्मक नहीँ हो सकता।खैर! बधाई !
*मेरा परिवार भी चूरु जिले के सिमसिया गांव [निकट राजलदेसर] से उठ कर हनुमानगढ आया है।
-ओम पुरोहित'कागद' omkagad.blogspot.com
''-----वहां के लोगों की जिंदगी में जीवंतता एवं सोच और विचार में ताजगी की कल्पना कहा से की जा सकती है-----
ReplyDelete।''
आपकी पोस्ट की भावनाएं स्वागत योग्य हैं लेकिन क्षेत्र को देखने का नजरिया कुछ अलग।
जीवन के प्रति सकारात्मक रूख ही सौंदर्य निर्धारित करता है, जहां नैरार्श्य है वहां महकती बगिया भी निरर्थक-सी लगती है।
संदर्भ के साथ जरूर परिवेशगत लाइनों को लिया जा सकता है लेकिन हकीकत में सरदारशहर ऐसा नहीं है।
कम से कम मुझे तो नहीं लगा। मैं उसकी बसावट, वहां के लोगों का निर्मल मन, अपनापन का भाव देखकर गदगद ही हुआ हूं हरदम।
सादर