दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Tuesday, December 22, 2009

कायम हो वर्दी का विश्वास

भीलवाड़ा। बहुत पुरानी कहावत है पहले मारे सो मीर। मतलब यह कि सामने वाले के चक्षु खुलने तक हाका कर पूरे गांव को अपने पक्ष में कर लेने वाला ही होशियार। बेगूं के विधायक राजेन्द्रसिंह विधूड़ी को राह चलते दो सौ रुपए की सेवा बताने की घटना ने सबकी आंखें खोल दी। परिवहन महकमे के आला से लेकर अदने से अफसर ने भरे चौराहे शर्र्मिंदगी महसूस की। खाकी वर्दी का रंग और रुआब तो एसीबी के पाउडर लगे नोट की तरह धुलकर उतर गया। वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर वसूली के लक्ष्य पूरे करने को लेकर महकमे की कार्य व्यवस्था लडख़ड़ा गई। महकमे पर यह ऐसा हमला था जैसे किले की पहरेदारी में चौकस सिपाहियों पर रात के तीसरे पहर दुश्मन ने हमला बोल दिया। ऊनींदा सिपाही अपने को संभालते जब तक पहरेदारी में कोताही की राजा को खबर हो गई। अब भला सिपाहियों की दलील कौन सुने? सो परिवहन महकमे का उपनिरीक्षक अब चिल्ला-चिल्लाकर भी कहे कि वह निर्दोष है तो उसकी कौन माने? चलिए यदि कोई अब उसकी बात मानने को तैयार नहीं तो न हो, उसे अनसुना भी नहीं किया जा सकता है? यदि वह यह कहना चाहता है कि जहां से धुआं निकल रहा है वहां ऐसे आग लगी थी तो उसमें हर्ज क्या है?

आखिर उसकी बात में सच्चाई होगी तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।कौन नहीं जानता राजनीति के हीरो विलेन के हाथों शिकस्त खा भी जाएं तो अपने धनबल-भुजबल और छल-बल से फिर प्रभाव जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। उपनिरीक्षक का कहा सच मानें तो लोकसेवक के सुरक्षा गार्ड ने राजकीय कामकाज कर रहे राजकीय कर्मचारी पर पहले तो अमानुषी हमला किया और फिर स्वयं की पहचान छिपाते हुए अपकथन कहे। हद तो तब हो गई जब लोकतंत्र के प्रहरी ही राजकीय सेवक को उठा ले गए। मामला उलटा पड़ता नजर आया तो लोगों को बुलाकर उनकी आंखों के सामने ऐसा ड्रामा रचा कि खाकी वर्दी का रंग सड़क की तरह काला पड़ गया।

यहां समझने वाली बात यह है कि लोकतंत्र में लोकसेवक और उसके सुरक्षा गार्ड को कानून हाथ में लेने के यह अधिकार दिए किसने? सड़क पर जाम लगना तो आम बात है। लोकसेवक थोड़ा संयम और धैर्य का परिचय देते तो अवरुद्ध मार्ग उनके लिए सुगम और सहज होते देर नहीं लगती। यूं भी सोचा जाए तो आलीशान गाड़ी में सुरक्षागार्ड के साथ बैठे किसी भद्र पुरुष से भला कौन मूर्ख सेवा करवा कर अपनी और महकमे की भद पिटवाएगा।

सत्य को कुछ समय के लिए झुठलाया जा सकता है मिटाया नहीं जा सकता। अब भले ही सरकार ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं। परिवहन आयुक्त ने जांच भी शुरू कर दी है। जांच की सांच का खुलासा जब होगा तब होगा। तब तक परिवहन महकमा चौराहे पर शर्र्मिंदगी झेलता रहेगा। परिवहन महकमे को भी चाहिए कि वह अपनी कमजोरियों को भी जांचे। कामकाज में पारदर्शिता लाए। यदि उपनिरीक्षक का कहा सत्य पाया जाता है तो फिर बिना किसी दबाव के लोकसेवक और उसके फरमाबरदार के विरुद्ध भी वैसी ही विधिसम्मत कार्रवाई अमल में लाई जाए जिससे लोगों में वर्दी का विश्वास और रुआब बना रहे। -सन्तोष गुप्ता

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