दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Tuesday, December 22, 2009

इस मर्ज की क्या है दवा

भीलवाड़ा जिले के आसींद तहसील स्थित ग्राम संग्रामगढ़ निवासी भंवरलाल की छह माह की पुत्री ममता अब सिर्फ भंवरलाल की ही नहीं रही। वह हर उस शख्स की ममता पा गई जिसमें तनिक भी मानवीय संवेदना शेष है। जिसने भी ममता के लिए भंवरलाल को तड़पते देखा, ममता की मौत की खबर ने उसे रुला दिया। आधुनिक चिकित्सकीय सुविधाओं और श्रेष्ठतम चिकित्सकों की टीम होने के बावजूद खून की कमी से पीडि़त मासूम की जान न बचा पाना निसंदेह सभी के लिए अफसोसजनक रहा। महात्मा गांधी चिकित्सालय में जमा पचास-सौ लोगों की तो भृकुटियां तन गई। पर, कर कोई कुछ नहीं सका। इन चिकित्सालयी अव्यवस्थाओं से हर कोई रू-ब-रू हो रखा है, लेकिन हर एक ने अपनी हैसियत के अनुसार व्यवस्थाएं बना ली है।

गांव का भंवरलाल ही ऐसा अभागा रहा जो ममता की खातिर चिकित्सालयी माया को न समझ पाया। भंवरलाल की आंखों में आंसू झलझला उठे थे। चेहरा भावशून्य दिखाई दे रहा था। होठ तो जैसे किसी ने सिल दिए हों। उसके पास अब न कुछ कहने को बचा था और न कुछ सुनने को। राष्ठ्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर बने अस्पताल का हर दर-ओ-दीवार अब उसे बेमानी लगने लगे थे। यहां जमा लोग भले ही उससे हमदर्दी रखते हो पर उसके लिए वे सब तमाशबीन से ज्यादा नहीं थे।

उसने कोई जुआ नहीं खेला फिर भी यहां सब कुछ हार चुका था। दांव पर लगाने को तो उसके पास पहले ही कुछ नहीं था। एक अदद उम्मीद थी। जिसके भरोसे वह अपनी फूल सी नाजुक बच्ची को जिन्दगी के दो घूंट पिलाने की आस में दौड़ा चला आया था। चिकित्सालय के कागजी भंवरजाल में ऐसा उलझा कि उसकी आंखों का नूर कब आसमान का तारा बन उससे दूर हो गया उसे एहसास ही नहीं हो सका। भंवरलाल आंखें फाड़कर चिकित्सक के आने की ही बांट जोहता रहा और यमराज बिना आहट के उसकी ममता को छीन ले गया।

कहते हैं ईश्वर के बाद यदि धरती पर इंसान को किसी पर सहज भरोसा होता है तो वह चिकित्सक ही है। चिकित्सक को आज भी मान और इज्जत बख्शी जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि माया के भंवरजाल में फंसे चिकित्सकीय पेशे में तो मानवीय संवेदनाएं कुपोषण के शिकार किसी दीन-हीन की गुम होती नब्ज की तरह टटोलने पर भी हाथ नहीं आ रही। कहीं कोई ठोस निगरानी नहीं है। कहीं मरीज की पर्ची पर कमीशन की दवाइयां लिखने के चर्चे आम हैं तो कहीं मरीज को वार्ड में भर्ती से पहले मुट्ठी गर्म करने का रिवाज हो गया है। रुई और पट्टी से लेकर रोग प्रतिरोधक और जीवनरक्षक दवाओं का अभाव गांव की डिस्पेंसरी से लेकर बड्े चिकित्सालयों तक है। यही कारण है कि कथित चिकित्सकीय अनदेखी और लापरवाही को लेकर चिकित्सालयों में हंगामे और तोडफ़ोड़ के किस्से हर रोज सुनने को मिल रहे हैं। पर इस मर्ज की दवा नहीं मिल रही।

महात्मागांधी चिकित्सालय को ही ले तो गत वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि यहां शिशु मृत्यु दर सालाना दस प्रतिशत से अधिक है। यह दर राष्ट्रीय शिशु मृत्युदर की तुलना में दुगनी है। राष्ट्रीय शिशु मृत्युदर 5.7 प्रतिशत है। यहां यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि मरने वाले बच्चों में 20 फीसदी जन्म के साथ ही श्वास की तकलीफ व 12 प्रतिशत खून की कमी से मौत का निवाला बन जाते है। चिकित्सकों की राय में खून की कमी से पीडि़त बच्चों को तो रोग प्रतिरोधक दवाएं देकर बचाया जा सकता है। श्वास से पीडि़त बच्चों के लिए तो सिर्फ शिशु रोग चिकित्सक की सतर्कता ही काफी है। बावजूद महात्मागांधी चिकित्सालय में इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। चिकित्सालय प्रबन्धन और स्वयं चिकित्सक संकल्पित हो जाएं तो फिर किसी की ममता यूं रोगोपचार के अभाव में आंसू नहीं बनेगी। ना ही कोई भंवर व्यवस्थाओं को न समझने पर तमाशा बनेगी।

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