दोस्तों, आज मैं खुश हूं। यह खुशी आपसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के लिए मैं पिछले लम्बे समय से चाहत रख रहा था। चाहत अब से चंद सैकंड पहले ही पूरी हुई। अगले हर पल आप लोगों का सुखद सान्निध्य पाता रहूं ऐसी कामना है। मैं चाहता हूं कि मैंने अब तक जो किया, जो मैं कर रहा हूं और जो मैं करना चाहता हूं। उसे ब्लॉग के जरिए आप सभी से साझा कर सकूं। मुझ में हर नए दिन की शुरुआत के साथ कुछ नया करने की ललक रहती है। उसे शिद्दत से पूरा करने की जद्दोजहद में हर दिन करना होता है...सच का सामना। ये ब्लॉग ऐसी ही सच्चाइयों से अब आपकों भी कराता रहेगा रू-ब-रू।

Tuesday, December 29, 2009

कैसे हो इकबाल बुलन्द

जिले में बुलन्द होते अपराधियों के हौंसले और कमजोर होता पुलिस का इकबाल आमजन को बेचैन बनाए हुए है। अपराधियों की सरेआम दहशतगर्दी की एक नहीं अनेक वारदातें हाल में घटित हुई हैं। पुलिसिया तंत्र है कि उसमें कहीं कोई हलचल दिखाई नहीं देती। पुलिसिया वर्दी का रंग आचरण में घुसी घूसखोरी में फीका पड़ गया है। रुआब तो जैसे अब रहा ही नहीं। पुलिसिया डण्डे को मानवाधिकार का लकवा मार चुका है। खुफियातंत्र दूर संचार क्रांति के ज्वर से संक्रमित है। शेष रहा क्या? निगरानी व्यवस्था? उसे पुलिस थाने और चौकियों की नफरी मार गई। अब बचा पुलिसिया इकबाल! उसका निगोड़ी राजनीति ने टेटुआ दबा रखा है। ऐसे में आमजन में विश्वास और अपराधियों में डर जैसे पुलिस के ध्येय वाक्य की अहमियत ही खत्म हो गई।आमजन भयभीत और समाजकंटक संरक्षित नजर आने लगे हैं। बच्चे से बूढ़े तक बेटी से दादी तक ने जान-माल की सुरक्षा और संरक्षा खुद के बूते या फिर भगवान भरोसे छोड़ दी है। सोमवार को जिले का सादुलपुर कस्बा एक बार फिर सुर्खियों में आया। न्यांगली और संजय नायक हत्या काण्ड की फाइल अभी पूरी तरह बंद नहीं हुई कि एक कारोबारी के गोली मारकर सरेराह ढाई लाख रुपए लूट की घटना ने हर आम और खास को हैरत में डाल दिया। पुलिस ने तो अभी घटना की ठीक से जांच ही शुरू नहीं की थी कि लुटरों को पहचानने वाले को टेलीफोन पर मिली जान से मारने की धमकियों ने इतना दहशत में ला दिया कि उसने मंगलवार सुबह खुदकुशी कर ली। अठारह वर्षीय इस नवयुवक ने अपनी जान को जोखिम में मानकर पुलिस से सुरक्षा की गुहार भी की थी। यहां चौंकाने वाली बात यह है कि घटना के कुछ समय बाद ही नवयुवक के पुलिस थाने पहुंचने की सूचना लुटेरों को कैसे मिली? क्या पुलिस थाने में अथवा बाहर लुटेरों के गुर्गे निगरानी रखे हुए थे? यदि यह सही है तो और भी अधिक गंभीर बात है। यहां सवाल यह भी उठता है कि जब युवक ने उसे फोन पर मिल रही धमकियों की जानकारी पुलिस को दी थी तो पुलिस ने उसे ही सुरक्षा घेरे में क्यों नहीं लिया? गोलियां चलाकर भागने वाले लुटरों से युवक की हिफाजत में घर पर निहत्थे सिपाहियों की तैनातगी के क्या मायने थे? अब तक यह बात भी स्पष्ट हो चुकी थी कि लुटेरों में से एक को वह पहचानता था। क्या हाथ आए गवाह को सुरक्षा मुहैया कराना पुलिस का धर्म और दायित्व नहीं था? जो भी हो पुलिसिंग में रही कमजोरी किसी न किसी रूप में इस हादसे के लिए जवाबदेह तो है ही। पुलिस प्रशासन को चाहिए कि वह सीएलजी की कथित खानापूर्ति वाली बैठकों से ऊपर उठकर आमजन में पुलिस का विश्वास कायम करने के लिए विचार करे। साथ ही समाजकंटकों के आगे कमजोर होते पुलिसिया इकबाल को बुलंद रखने के लिए ठोस कदम उठाए। अन्यथा खुद की सुरक्षा में लोग लामबंद होने लगे तो शांति व कानून व्यवस्था बनाए रखने में बड़ी मुश्किल होगी।

2 comments:

  1. सार्थक विचारों और सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई और नववर्ष की शुभकामनाएं भी...

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